पंचायत चुनाव में महिलाएं: नाम की मुखिया या असली नेता?

पंचायत चुनाव में महिलाएं: नाम की मुखिया या असली नेता?

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क्या महिलाओं की राजनीति में भूमिका सिर्फ नाम भर की है? क्या महिलाएं सच में राजनीति में आगे बढ़ रही हैं,या फिर उन्हें सिर्फ ‘मोहरा’ बनाकर रखा जा रहा है? 2027 चुनाव से पहले उत्तराखंड में पंचायत चुनाव की सरगर्मी तेज़ हो चुकी है,,,गाँवों में चाय की दुकानों से लेकर चौपालों तक,हर जगह चर्चा का माहौल है। हर पार्टी और निर्दलीय उम्मीदवार प्रचार में जुटे हुए हैं,,,हर जगह बैनर-पोस्टर लग रहे हैं, वादों की बौछार हो रही है,,,और हर चुनाव की तरह, इस बार भी नेता कह रहे हैं,महिलाओं को सशक्त बनाएंगे, महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाएंगे, महिलाओं को सुरक्षा देंगे।” लेकिन क्या हर बार की तरह यह सिर्फ वादा ही रह जाएगा? क्या पंचायत चुनाव में महिलाएं सिर्फ सीट भरने का साधन हैं? या सच में उन्हें नेतृत्व का अवसर दिया जा रहा है?


यहाँ पर हमें दो बातें देखने की ज़रूरत है,,,पहला  प्रतिनिधित्व का आंकड़ा बढ़ा है,,,,दूसरा  असल में सिर्फ आंकड़ा बढ़ा है या फिर फैसले लेने की शक्ति भी बढ़ी है? पंचायतों में महिलाएं सीट पर तो आ गईं,लेकिन क्या वह मुखिया, सरपंच या ग्राम प्रधान बनकर ,सच में अपनी मर्जी से फैसले ले पा रही हैं? कई गाँवों में यह देखा गया है कि महिला प्रधान के नाम पर,उनके पति, भाई या पिता पंचायत चला रहे होते हैं। इसे ‘प्रधान  पति’ कल्चर कहा जाता है, जहाँ महिला नाम की मुखिया होती है,और सत्ता उनके परिवार के पुरुषों के हाथ में रहती है। उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल के कई ब्लॉकों में यह आम बात है।अल्मोड़ा के छेत्र से एक महिला प्रधान चुनी गई,लेकिन पंचायत के हर फैसले में उनके पति और देवर ही बैठकों में आगे दिखाई दिए । पौड़ी के एक गाँव में महिला प्रधान की जगह उनके बेटे ने सरकारी अधिकारियों के साथ बैठकर योजनाओं की फाइल पर निपटारा किया भले हस्ताक्षर महिला प्रधान ने ही किये । 
ऐसे में सवाल उठता है कि   —क्या महिलाओं को ‘नाम की मुखिया’ बनाकर ही रखा जा रहा है? क्या हम सच में महिलाओं को सशक्त कर रहे हैं, या बस दिखावा कर रहे हैं?
आगे बढ़ें उससे पहले थोड़ा आरक्षण की स्थिति स्पष्ट कर दें… भारत में संविधान ने पंचायतों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण दिया है ,जिसे कई राज्यों ने बढ़ाकर 50% कर दिया।राजस्थान में पंचायतों में 56% महिला प्रतिनिधित्व है, महाराष्ट्र में 54%, बिहार में 50%। उत्तराखंड में भी पंचायत चुनाव में 50% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं,,,जो कागज़ों पर बड़ा सुकून महिलाओं के प्रति देता है , लेकिन असल में क्या महिलाएं खुद फैसले ले रही हैं? भले कोई सीधे तौर पर ये न माने पर सच यही है की मुख्य रूप से प्रधान पति, प्रधान पिता या प्रधान भाई ही फैसला लेते हैं ,,
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अब विधानसभा और संसद में महिलाओं की स्थिति पर आते हैं,,,पंचायतों में 50% आरक्षण है,लेकिन विधानसभा में उत्तराखंड में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 7% है। देशभर में औसतन 10-12% महिलाएं ही विधानसभा में हैं। उत्तर प्रदेश — 11%,,,,,बिहार — 12%,,,,,,मध्यप्रदेश — 10%,,,,,,हरियाणा — 8%,,,,छत्तीसगढ़ सबसे ज़्यादा 18%  …. अब लोकसभा को देख लीजिये,,,,लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ 15% और राज्यसभा में 13% है,,,मतलब महिलाओ की आधी आबादी, लेकिन असल फैसलों में भागीदारी 10-15%… सवाल उठता है क्यों?

2022 विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड में महिला मतदाता पुरुषों से अधिक थीं। फिर भी तीनों बड़ी पार्टियों ने 10% से भी कम टिकट महिलाओं को दिए।बीजेपी ने 8, कांग्रेस ने 5, आम आदमी पार्टी ने 7 महिलाओं को टिकट दिए, यानि 210 सीटों में सिर्फ 20 महिलाएं मैदान में उतरीं। इनमें से भी आधी महिलाएं किसी नेता की बेटी, पत्नी या बहू थीं। जिनको अपने परिवार की राजनीतिक विरासत संभालने के लिए टिकट मिला,,,,लेकिन आम घर की महिलाओं को टिकट क्यों नहीं? इस पर राजनीतिक दल कहते हैं,,,,“चुनाव जीतने के लिए जिताऊ उम्मीदवार चाहिए,,,जबकि राजनीतिक जानकार  मानते हैं कि हमारी राजनीति धनबल और बाहुबल पर चलती है। शराब, पैसे और माफिया का खेल चलता है।ऐसे माहौल में महिलाएं चुनाव लड़ने में खुद को असहज पाती हैं।
 
 

जानकारों की माने तो उत्तराखंड की राजनीति में खनन और शराब माफिया का भी प्रभाव है,,,,राजनीति एक सिंडिकेट की तरह काम करती है, जिसमें सत्ता पक्ष, विपक्ष, अफसर, माफिया और मीडिया का गठजोड़ है। यही 5-7 हज़ार लोग, सवा करोड़ की आबादी की राजनीति तय कर रहे हैं।,,,,,
लेकिन दोष केवल सिस्टम का ही नहीं है,राजनीतिक दलों का रवैया भी दोषी है। हर बार चुनाव में कहते हैं, “महिलाओं को टिकट देंगे,”लेकिन देने में कंजूसी करते हैं और मज़े की बात देखिए…जो महिलाएं चुनाव लड़ती हैं, उनका जीतने का प्रतिशत भी पुरुषों से अधिक होता है। महिलाओं के जीतने की दर 16.5% है,जबकि पुरुषों की 11.8%। यानी महिलाएं बेहतर परफॉर्म कर रही हैं.. फिर टिकट देने में कंजूसी क्यों? सवाल ये  नहीं है कि महिलाएं राजनीति में क्यों नहीं हैं,सवाल यह है कि उन्हें आने से रोका क्यों जा रहा है? देश आधा उनका है,तो फैसलों में हिस्सा आधा क्यों नहीं?
 

 

एक बात और ,,,महिलाओं की सुरक्षा हर चुनाव में मुद्दा बनती है।‘महिला हेल्पलाइन’, ‘पिंक पेट्रोलिंग’, ‘महिला सुरक्षा ऐप’ जैसे नाम गिनाए जाते हैं।लेकिन क्या महिलाएं सच में सुरक्षित हैं?उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में महिलाओं को रोज़ 5-10 किलोमीटर पैदल चलकर पानी और लकड़ी लानी पड़ती है।रास्ते में छेड़छाड़ और यौन हिंसा की घटनाएं होती हैं।कई मामलों में शिकायत करने पर पुलिस भी गंभीरता से नहीं लेती।जब महिलाओं की सुरक्षा ही नहीं हो पा रही,तो राजनीति में आने पर भी वह कैसे सुरक्षित महसूस करेंगी?क्योंकि राजनीती में तो इससे बढ़कर  उन्हें ट्रोलिंग, गाली-गलौज, चरित्र हनन का सामना करना पड़ता है जो आम महिला नेता के लिए किसी यातना से कम नहीं



महिलाओं के नाम पर कई योजनाएं भी बनी हैं।महिला उद्यमिता योजना’, ‘महिला स्टार्टअप फंड’, ‘मुख्यमंत्री महिला सशक्तिकरण योजना’…लेकिन 2024 में केवल 18% सरकारी फंडिंग महिला उद्यमियों को मिली।महिला स्टार्टअप में 60% प्रोजेक्ट फंड की कमी से बंद हो गए।ज्यादातर योजनाएं कागज तक सीमित रह गईं।सरकारी आंकड़ों में जो महिला आत्मनिर्भर दिखाई जाती है,ज़मीन पर हालात अलग हैं।हमारे समाज में महिलाओं को देवी का दर्जा दिया गया है।लेकिन क्या राजनीति में उन्हें वही दर्जा दिया गया? क्या हम महिलाओं को सिर्फ त्योहारों में पूजने के लिए देवी मानते हैं,या उन्हें फैसलों की मेज़ पर भी बराबरी का दर्जा देना चाहते हैं?
अगर हम एक सशक्त और निष्पक्ष लोकतंत्र चाहते हैं,तो पंचायतों में उन्हें फैसले लेने का अधिकार देना होगा न की उनके पति ,पिता या भाई को  ,,, विधानसभा और संसद में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी होगी।वो भी नाम मात्र की नहीं, असल नेतृत्व के साथ। महिलाओं को सिर्फ घोषणा पत्रों और पोस्टरों की शोभा नहीं बल्कि उन्हें असली सत्ता और फैसलों में बराबरी का हिस्सा देना होगा ।
जब महिलाएं असलियत में आगे आएंगी,तो राजनीति में भी ईमानदारी, संवेदनशीलता और पारदर्शिता आएगी। उत्तराखंड की महिलाएं पहाड़ की चट्टानों सी मजबूत हैं। वो खेत संभाल सकती हैं, जंगल से लकड़ी ला सकती हैं, बच्चों की परवरिश कर सकती हैं,तो राजनीति भी संभाल सकती हैं,जरूरत है, उन्हें सिर्फ मौका देने की।

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