Month: July 2025

हाईकोर्ट का बड़ा आदेश: दो जगह वोटर लिस्ट में नाम वालों पर रोक

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नैनीताल। हाईकोर्ट ने राज्य निर्वाचन आयोग को तगड़ा झटका दिया है। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राज्य में होने वाले पंचायत चुनाव को लेकर अहम आदेश दिया है।
अदालत ने स्पष्ट किया कि जिन उम्मीदवारों के नाम शहर और गाँव — दोनों जगह की वोटर लिस्ट में दर्ज हैं, वे पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। ऐसे मामलों में तुरंत रोक लगाने के निर्देश देते हुए कोर्ट ने कहा कि यह आदेश चुनाव प्रक्रिया को बाधित नहीं करता, बल्कि चुनावी नियमों का पालन सुनिश्चित करने के लिए है।पंचायत चुनाव नाम वापसी के आखिरी दिन हाईकोर्ट के आदेश से  खलबली मची है।

 

गौरतलब है कि 6 जुलाई को राज्य निर्वाचन आयोग के सचिव के आदेश में नगर निकाय क्व मतदाताओं का पंचायत चुनाव लड़ने का रास्ता साफ ही गया था।

हालांकि, बाद में सचिव ने एक और आदेश जारी कर कहा कि पंचायती राज एक्ट के हिसाब से होंगे चुनाव।

इधऱ, इन आदेशों के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने 6 जुलाई के आदेश पर रोक लगा दी।

इधऱ, यह भी काबिलेगौर है कि 11 जुलाई ,शुक्रवार को नाम वापसी का अंतिम दिन है। ऐसे में हाईकोर्ट के स्टे के बाद राज्य निर्वाचन आयोग प्रतिबंधित दावेदारों को अब चुनाव लड़ने से कैसे रोक पायेगा?

नैनीताल के बुडलकोट क्षेत्र में 51 बाहरी लोगों के नाम वोटर लिस्ट में शामिल करने के मामले में भी सरकार से जवाब मांगा गया है। अदालत के इस आदेश से कई प्रत्याशियों की दावेदारी पर असर पड़ सकता है।

ऑपरेशन कालनेमि- पुलिस ने 25 ढोंगी बाबा किये गिरफ्तार

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देहरादून। मुख्यमंत्री के निर्देश पर चलाए जा रहे “ऑपरेशन कालनेमि” के तहत दून पुलिस ने शुक्रवार को बड़ी कार्रवाई करते हुए साधु-संतों का भेष धरकर लोगों को ठगने वाले 25 ढोंगी बाबाओं को गिरफ्तार किया। इनमें एक बांग्लादेशी नागरिक भी शामिल है, जिस पर विदेशी अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया है।

एसएसपी खुद नेहरू कॉलोनी क्षेत्र में पहुंचे और सड़क किनारे बैठे बाबाओं से पूछताछ की। ज्योतिष विद्या और साधु परंपरा का कोई प्रमाण न देने पर उन्होंने मौके पर ही पुलिस को कार्यवाही के निर्देश दिए।
विभिन्न थाना क्षेत्रों में पुलिस ने फर्जी बाबाओं को गिरफ्तार किया, जिनमें 20 से अधिक अन्य राज्यों के हैं।

गिरफ्तारियां:

बांग्लादेशी नागरिक रूकन रकम उर्फ शाह आलम (26), प्रदीप (सहारनपुर), अजय चौहान (सहारनपुर), अनिल गिरी (हिमाचल), मंगल सिंह और रोझा सिंह (देहरादून), कोमल कुमार व अश्वनी कुमार (हाथरस), राजानाथ (देहरादून), रामकृष्ण और शौकीनाथ (यमुनानगर), मदन सिंह (चंपावत/हरिद्वार), राहुल जोशी (बिजनौर/देहरादून), मोहम्मद सलीम (हरिद्वार), और अन्य राजस्थान, असम, उत्तर प्रदेश व हरिद्वार के निवासी शामिल हैं।

एसएसपी ने बताया कि ऐसे फर्जी बाबाओं के खिलाफ कार्रवाई आगे भी जारी रहेगी ताकि देवभूमि में धर्म के नाम पर ठगी और आस्था से खिलवाड़ करने वालों पर सख्त शिकंजा कसा जा सके।

पंचायत चुनाव पर फिर मंडराया खतरा ! हाईकोर्ट में बहस 

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नैनीताल। हाईकोर्ट ने पंचायत चुनाव की तारीख को आगे खिसकाने सम्बन्धी याचिका को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पंचायती राज सचिव व डीजीपी को सुरक्षात्मक उपायों के बाबत कोर्ट के समक्ष तथ्य पेश करने को कहा।

शुक्रवार को हुई सुनवाई में हाईकोर्ट ने कहा कि दोनों अधिकारी इस बाबत सरकार की आकस्मिक योजना पेश करें। संकट के समय कैसे स्थिति को कैसे संभाला जाएगा।

याचिकाकर्ता डॉ बैजनाथ शर्मा ने अपनी याचिका में विभिन्न कारणों का उल्लेख करते हुए पंचायत चुनाव की तिथि आगे खिसकाने की मांग की है।

गौरतलब है कि प्रदेश के पंचायत चुनाव में 24 व जुलाई को दो चरणों में मत डाले जाएंगे।

याचिका कर्ता ने कहा कि राज्य में गम्भीर आपदा व बरसात के मौसम में पंचायत चुनाव का कार्यक्रम जारी किया गया।

आपदा की वजह से प्रदेश की दर्जनों सड़कें बन्द होने से ग्रामीण इलाकों में आवाजाही ठप हो गयी है। ऐसे में चुनाव प्रचार व मतदान पर विपरीत असर लड़ेगा।

इसी महीने में कांवड़ यात्रा शुरू हो गयी है। लाखों की संख्या में कांवड़िए उत्तराखण्ड की ओर कूच कर रहे हैं। प्रदेश के कई पर्वतीय जिलों में कांवड़िए पहुंच रहे हैं।

यही नहीं, चारधाम यात्रा के चलने से प्रतिदिन हजारों तीर्थयात्री उत्तराखण्ड पहुंच रहे हैं। कुल मिलाकर उत्तराखण्ड के हरिद्वार से लेकर पर्वतीय जिलों में भारी जनसैलाब उमड़ रहा है।

कांवड़ यात्रा, आपदा प्रभावित इलाके और चारधाम यात्रा के लिए आवश्यक सुरक्षा बलों पर भी भारी बोझ देखा जा रहा है।

पुलिस-प्रशासन की सीमित टीम आपदा व पंचायत चुनाव के अलावा कांवड़ियों के लिए व्यवस्था बनाने में जुटी है। इससे अन्य जिलों में सुरक्षा बलों की कमी भी देखी जा रही है।

याचिकाकर्ता ने चारधाम यात्रा,आपदा, पंचायत चुनाव, कांवड़ यात्रा एक ही समय पर हो रही है। ऐसे में सभी मोर्चों पर जूझना काफी कठिन माना जा रहा है। लिहाजा, त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव जुलाई महीने के बजाय अन्य महीने में आयोजित किये जायें।

सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की लीगल टीम ने अपना पक्ष भी रखा। सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने किसी भी संकट की घड़ी से निपटने के लिए डीजीपी व पंचायत सचिव को आकस्मिक योजना पेश करने को कहा है। मंगलवार को राज्य सरकार समूची व्यवस्था को लेकर कोर्ट में तथ्य पेश करेंगे।

गावं में एक भी ओबीसी नहीं,फिर भी प्रधान की सीट कर दी आरक्षित,नहीं भर पाया कोई पर्चा 

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पौड़ी। कल्जीखाल ब्लॉक की ग्राम पंचायत डांगी में ग्राम प्रधान पद ओबीसी महिला के लिए आरक्षित होने पर ग्रामीणों ने चुनाव का बहिष्कार करने का ऐलान किया है। मंगलवार को निवर्तमान प्रधान भगवान सिंह चौहान के नेतृत्व में शिष्टमंडल ने जिलाधिकारी स्वाति एस भदौरिया को ज्ञापन सौंपा।

डांगी में प्रधान पद को इस बार ओबीसी महिला आरक्षण के अंतर्गत रखा गया है, लेकिन समस्या ये है कि ग्राम डांगी में पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के कोई भी मतदाता या नागरिक मौजूद नहीं हैं. इस विसंगति के कारण ग्राम प्रधान पद के लिए एक भी नामांकन दाखिल नहीं हो पाया है. वहीं अब नाराज ग्रामीणों ने जिलाधिकारी को ज्ञापन सौंपते हुए आरक्षण में सुधार की मांग की है.साथ ही ग्राणीणों ने चेतावनी दी है कि यदि इस मुद्दे का समाधान नहीं किया गया, तो वे आगामी पंचायत चुनावों में क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के लिए होने वाले मतदान का बहिष्कार करेंगे. ग्रामीणों का कहना है कि प्रशासन द्वारा क्षेत्रीय सामाजिक संरचना को नज़रअंदाज़ कर आरक्षण लागू किया गया है, जो ग्रामवासियों के लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन है. ग्रामीणों ने मांग की है कि ग्राम प्रधान पद का आरक्षण तत्काल प्रभाव से बदला जाए, ताकि योग्य उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने का अवसर मिल सके.

 

ग्रामीणों ने कहा कि गांव में कोई प्रमाणित ओबीसी व्यक्ति नहीं है और 2015 से अब तक किसी को ओबीसी प्रमाण पत्र जारी नहीं हुआ। ऐसे में आरक्षण नियमों के विरुद्ध है। सामाजिक कार्यकर्ता जगमोहन डांगी ने बताया कि शिकायतों के बावजूद समाधान नहीं हुआ और कोई नामांकन दाखिल नहीं हो सका। ग्रामीणों ने आंगनबाड़ी के रिक्त पदों का भी मुद्दा उठाया। जिलाधिकारी ने मामले को शासन को भेजने और निर्देशानुसार कार्रवाई का आश्वासन दिया।

धामी का दावा और भाजपा की अंदरूनी ‘भविष्यवाणी’

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कहते हैं उत्तराखंड की राजनीति में एक अजीब सी चुप्पी हमेशा एक सनसनी मचाये रखती है ,, मगर इस बार गर्मी चुप्पी से नहीं बल्कि दो बयानों से पैदा हुई है ,,,वो भी सत्ता पक्ष की तरफ से आये बयानों से  ,,, और उस पर तेज़ और तीखी मिर्च की माफिक तड़का लगा दिया है विपक्षी नेता हरीश रावत ने,,,
शुरुआत होती है शांत से दिखने वाले प्रदेश उत्तराखंड में सत्ता सीन भाजपा के अध्यक्ष को चुनने के साथ ,, मगर अध्यक्ष के बहाने चर्चा शुरू हो जाती है मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की जिनके बारे में अब कहा जाने लगा है की वो इसिहास लिखने की और बढ़ रहे हैं क्या ? क्या भाजपा आलाकमान ने धामी पर भरोसा कर एक सियासी बिसात भविष्य को लेकर बिछा दी है या फिर परदे के पीछे से एक नयी स्क्रिप्ट लिखी जा रही है ?
चलिए, तर्कों, बयानों और पॉलिटिकल इंटेलिजेंस के ज़रिए इस पूरे खेल को समझते हैं… विस्तार से, निष्पक्ष रूप से और फैक्ट्स के साथ।

 

ये जगजाहिर है की उत्तराखंड की राजनीती अन्य राज्यों की तरह न तो शांत है और न ही स्थिर ,,,,जहाँ मुख्यमंत्री बदलने की न केवल चर्चा चलती हैं बल्कि अमलीजामा पहना कर उन चर्चाओं को हकीकत में भी बदल दिया जाता है ,,,लेकिन इस बार इन चर्चाओं पर विराम सा लग गया है ,, तमाम अटकलें लगाई जा रहीं थी की प्रदेश में मुख्यमंत्री जल्द ही बदला जाना है ,, लेकिन पुष्कर सिंह धामी ने न केवल अपने चार वर्ष पुरे कर लिए हैं बल्कि भाजपा के सबसे ज्यादा वक़्त तक मुख्यमंत्री रहने का कीर्तिमान भी बना लिया है ,, अब उत्तराखंड में तो ये कीर्तिमान ही कहा जाएगा जहाँ रात को सोने वाले मुख्यमंत्री को यही पता नहीं रहता की वो सुबह उठकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होगा भी या नहीं

 
 
 
यहाँ ये समझना जरूरी है कि उत्तराखंड भाजपा की राजनीति में मुख्यमंत्री बदलना कोई नई बात नहीं,,,,खंडूरी, निशंक, त्रिवेंद्र, तीरथ… हर चुनाव से पहले या बीच में चेहरा बदलकर पार्टी सत्ता बचाती रही है,,,,लेकिन इस बार तस्वीर बदलती दिख रही है। पुष्कर सिंह धामी, जिन्हें पहली बार मात्र 45 साल की उम्र में सीएम बनाकर भाजपा ने युवाओं को संदेश दिया,,,,उनके नेतृत्व में पार्टी ने 2022 में सत्ता दोबारा हासिल की,,2022  के चुनाव में खुद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अपना चुनाव अपनी परंपरागत सीट खटीमा से हार गए थे ,, बावजूद इसके ,दिल्ली में बैठे आलाकमान ने धामी पर भरोसा जताया और एक बार फिर हाव के बावजूद उनको प्रदेश का मुखिया बना दिया ,,,अब सवाल यह है कि क्या भाजपा आलाकमान ने इस बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पुष्कर सिंह धामी को लंबी पारी देने का फैसला कर लिया है?

 

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने हाल ही में महेंद्र भट्ट के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी की बड़ी बैठक में कहा,,,,“झूठी खबरें और अफवाहें ज्यादा दिन नहीं चलतीं। पार्टी नेतृत्व सब जानता है, और काम के आधार पर मौका देता है। धामी का यह बयान आत्मविश्वास से भरा था, और इशारा भी था,,,,इशारा उन अफवाहों की तरफ,जो उनके खिलाफ पार्टी के भीतर उड़ाई जाती रही हैं।इशारा उन चेहरों की तरफ,जो पर्दे के पीछे से उत्तराखंड में नेतृत्व बदलने की बिसात बिछाने में लगे थे।धामी का कहना,,, कि ,,पार्टी नेतृत्व सब जानता है, साफ करता है कि हाईकमान उनके पीछे खड़ा है,,,इसी बीच महेंद्र भट्ट का 36 सेकंड का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वह कहते हैं,,,,सीएम धामी नारायण दत्त तिवारी का रिकॉर्ड तोड़ेंगे। 2027 में चुनाव भी धामी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, और फिर से धामी ही सीएम बनेंगे।

 

 

महेंद्र भट्ट का यह बयान साधारण नहीं है। प्रदेश अध्यक्ष की दोबारा ताजपोशी के बीच यह बयान पार्टी के अंदरूनी खेल पर पानी की बौछार जैसा था,,,,भाजपा में पिछले दिनों प्रदेश अध्यक्ष के पद के लिए कई नाम चर्चा में थे, गुटबाजी थी, अंदरूनी घमासान था, लेकिन आखिरकार महेंद्र भट्ट की ताजपोशी हुई, और वह भी धामी के समर्थन से,,,,यानी अब उत्तराखंड भाजपा में धामी-भट्ट की जोड़ी एक नयी स्क्रिप्ट लिख रही है।
वैसे भी उत्तराखंड की राजनीति में गढ़वाल-कुमाऊं समीकरण हमेशा अहम रहा है,,,महेंद्र भट्ट गढ़वाल से आते हैं, और धामी कुमाऊं से,,,,,,इस जोड़ी को बनाए रखने में भाजपा आलाकमान ने रणनीतिक सोच दिखाई है।भट्ट की दोबारा ताजपोशी और धामी का आत्मविश्वास, दोनों ने एक साथ भाजपा के कार्यकर्ताओं और नेताओं को सीधा संदेश दे दिया,,,,कि “पार्टी में अगर आगे बढ़ना है, तो काम करना होगा। हाईकमान सब देख रहा है।”

उत्तराखंड में भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए चेहरा बदलने की परंपरा निभाई है,,,खंडूरी इज़ बैक नारा याद होगा,,,त्रिवेंद्र सिंह रावत से तीरथ सिंह रावत और फिर तीरथ से पुष्कर सिंह धामी तक का सफर भी आपने देखा है…. लेकिन इस बार धामी खुद कह रहे हैं कि अफवाहें टिकती नहीं,और महेंद्र भट्ट कह रहे हैं कि धामी रिकॉर्ड तोड़ेंगे।क्या इसका मतलब यही है कि भाजपा अब मुख्यमंत्री बदलने की परंपरा तोड़ने जा रही है? क्या भाजपा अब मोदी के चेहरे के साथ-साथ धामी के चेहरे पर भी वोट मांगेगी? इन सवालों के जवाब आने वाले महीनों में दिखने लगेंगे। सियासी  भी चर्चा है की धामी संभवतः सिर्फ उत्तराखंड तक ही सीमित नहीं रहेंगे ,, गुजरात से मोदी जिस तरह दिल्ली की राजनीती का हिस्सा बने आने वाले वक़्त में उत्तराखंड से धामी भी दिल्ली की ओर कदम बढ़ा सकते हैं ,, खैर ये वक़्त के हाथ है ,, फिलहाल थोड़ा चर्चा धामी कृपा से अध्यक्ष की कुर्सी पर दूसरी बार विराजमान हुए महेंद्र भट्ट की कर लेते हैं ,,

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट का राजनीतिक सफर भी कम दिलचस्प नहीं है,,,,प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए वह खुद बद्रीनाथ सीट से चुनाव हार चुके हैं,,,उन पर एक नहीं कई बार विवादित बयान देने के आरोप लगे हैं,,,,जोशीमठ आपदा,, जिस समय तमाम स्थानीय निवासी सड़कों पर थे ,,उनकी अगुवाई कर रहे कुछ लोगों को महेंद्र भट्ट ने  माओवादी तक कह दिया था ,,,
गैरसैंण आंदोलनकारियों को “सड़क छाप” कह दिया,और प्रेमचंद अग्रवाल प्रकरण में पार्टी की फजीहत करवा दी,,,,फिर भी पार्टी ने उन पर दोबारा भरोसा जताया है।अब पंचायत चुनाव और फिर 2027 का चुनाव महेंद्र भट्ट के लिए अग्निपरीक्षा जैसा होगा।उनकी जिम्मेदारी है कि भाजपा को सत्ता में वापस लाएं, और धामी को दोबारा मुख्यमंत्री बनवाएं।मगर यहाँ ये भी याद रखने की जरूरत है की प्रदेश में हुए बद्रीनाथ उपचुनाव और हरिद्वार के मंगलौर उपचुनाव में महेंद्र भट्ट करारी हार का सामना कर चुके हैं ,, निकाय चुनाव के दौरान भी उनके नेतृत्व में कोई बहुत अच्छा रिजल्ट मेयर की अधिकतर सीटें जीतकर भी नहीं आया ,,कमसकम आंकड़े तो यही तस्दीक कर रहे हैं ,,,उन्हीं के अध्यक्ष रहते हुए कई भाजपा नेताओं पर गंभीर आरोप लगे हैं ,, जिससे कई बार उनके सही तरीके से संगठन को चलाने को लेकर सवाल उठे हैं ,,खैर धामी भक्ति में लीन कइयों की नैय्या पार लगी है

 

अब वापिस से बस यही सवाल खड़ा होता है कि ,,,क्या धामी सच में नारायण दत्त तिवारी का रिकॉर्ड तोड़ पाएंगे? क्या वह 5 साल का कार्यकाल पूरा कर पाएंगे?क्या भाजपा आलाकमान उन पर इतना भरोसा कर चुका है कि 2027 में भी उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया जाए? धामी का आत्मविश्वास और भट्ट की भविष्यवाणी तो यही कहती है कि इस बार धामी लंबी पारी खेलने की तैयारी में हैं,,,,लेकिन भाजपा की राजनीति में कब कौन सा चेहरा बदल जाए, किसके खिलाफ अंदरूनी हवा बन जाए,इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता।

 

 

उत्तराखंड की राजनीति में पिछले दो साल से जो धामी बनाम बदलाव का सस्पेंस बना था,फिलहाल उस पर ब्रेक लगता दिख रहा है।उस पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपने सोशल मीडिया पर एक कार्टून से राजनीतिक हवा को थोड़ा और गर्म कर दिया है ,,,वैसे भी व्यंजनों के ब्रांड अम्बेसडर कब इसको व्यंग में तब्दील कर देते हैं इसके बारे में तो खुद कांग्रेसी भी अंदाज़ा नहीं लगा सकते ,, जिस तरह से उन्होंने धामी विरोधिओं को अंगूर से तुलना कर शॉट मारा है उससे उनके मन में पुष्कर सिंह धामी के प्रति प्रेम को साफ़ महसूस किया जा सकता है ,,, वैसे भी वो कई बार कई मंचों पर ब्यान दे भी चुके हैं की धामी पुरे पांच साल तक रहने चाहिए ,, अगर ऐसा होता है तो कभी उनके  हाथ आयी कुर्सी को छीनने वाले उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री ,, दिवंगत नारायणदत्त तिवारी का रिकॉर्ड तो फिलहाल बराबर हो ही सकता है ,,

 

खैर गेंद अब भाजपा के पाले में है,,,अगर धामी और भट्ट की जोड़ी 2027 तक सत्ता और संगठन दोनों संभाले रख पाती है,तो उत्तराखंड की राजनीति में यह एक नया अध्याय होगा। आपका क्या मानना है? क्या धामी 2027 तक मुख्यमंत्री बने रह पाएंगे? क्या भाजपा की मुख्यमंत्री बदलने की परंपरा इस बार टूट जाएगी? या फिर पर्दे के पीछे एक नई पटकथा लिखी जा रही है?

पंचायत चुनाव में महिलाएं: नाम की मुखिया या असली नेता?

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क्या महिलाओं की राजनीति में भूमिका सिर्फ नाम भर की है? क्या महिलाएं सच में राजनीति में आगे बढ़ रही हैं,या फिर उन्हें सिर्फ ‘मोहरा’ बनाकर रखा जा रहा है? 2027 चुनाव से पहले उत्तराखंड में पंचायत चुनाव की सरगर्मी तेज़ हो चुकी है,,,गाँवों में चाय की दुकानों से लेकर चौपालों तक,हर जगह चर्चा का माहौल है। हर पार्टी और निर्दलीय उम्मीदवार प्रचार में जुटे हुए हैं,,,हर जगह बैनर-पोस्टर लग रहे हैं, वादों की बौछार हो रही है,,,और हर चुनाव की तरह, इस बार भी नेता कह रहे हैं,महिलाओं को सशक्त बनाएंगे, महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाएंगे, महिलाओं को सुरक्षा देंगे।” लेकिन क्या हर बार की तरह यह सिर्फ वादा ही रह जाएगा? क्या पंचायत चुनाव में महिलाएं सिर्फ सीट भरने का साधन हैं? या सच में उन्हें नेतृत्व का अवसर दिया जा रहा है?


यहाँ पर हमें दो बातें देखने की ज़रूरत है,,,पहला  प्रतिनिधित्व का आंकड़ा बढ़ा है,,,,दूसरा  असल में सिर्फ आंकड़ा बढ़ा है या फिर फैसले लेने की शक्ति भी बढ़ी है? पंचायतों में महिलाएं सीट पर तो आ गईं,लेकिन क्या वह मुखिया, सरपंच या ग्राम प्रधान बनकर ,सच में अपनी मर्जी से फैसले ले पा रही हैं? कई गाँवों में यह देखा गया है कि महिला प्रधान के नाम पर,उनके पति, भाई या पिता पंचायत चला रहे होते हैं। इसे ‘प्रधान  पति’ कल्चर कहा जाता है, जहाँ महिला नाम की मुखिया होती है,और सत्ता उनके परिवार के पुरुषों के हाथ में रहती है। उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल के कई ब्लॉकों में यह आम बात है।अल्मोड़ा के छेत्र से एक महिला प्रधान चुनी गई,लेकिन पंचायत के हर फैसले में उनके पति और देवर ही बैठकों में आगे दिखाई दिए । पौड़ी के एक गाँव में महिला प्रधान की जगह उनके बेटे ने सरकारी अधिकारियों के साथ बैठकर योजनाओं की फाइल पर निपटारा किया भले हस्ताक्षर महिला प्रधान ने ही किये । 
ऐसे में सवाल उठता है कि   —क्या महिलाओं को ‘नाम की मुखिया’ बनाकर ही रखा जा रहा है? क्या हम सच में महिलाओं को सशक्त कर रहे हैं, या बस दिखावा कर रहे हैं?
आगे बढ़ें उससे पहले थोड़ा आरक्षण की स्थिति स्पष्ट कर दें… भारत में संविधान ने पंचायतों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण दिया है ,जिसे कई राज्यों ने बढ़ाकर 50% कर दिया।राजस्थान में पंचायतों में 56% महिला प्रतिनिधित्व है, महाराष्ट्र में 54%, बिहार में 50%। उत्तराखंड में भी पंचायत चुनाव में 50% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं,,,जो कागज़ों पर बड़ा सुकून महिलाओं के प्रति देता है , लेकिन असल में क्या महिलाएं खुद फैसले ले रही हैं? भले कोई सीधे तौर पर ये न माने पर सच यही है की मुख्य रूप से प्रधान पति, प्रधान पिता या प्रधान भाई ही फैसला लेते हैं ,,
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अब विधानसभा और संसद में महिलाओं की स्थिति पर आते हैं,,,पंचायतों में 50% आरक्षण है,लेकिन विधानसभा में उत्तराखंड में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 7% है। देशभर में औसतन 10-12% महिलाएं ही विधानसभा में हैं। उत्तर प्रदेश — 11%,,,,,बिहार — 12%,,,,,,मध्यप्रदेश — 10%,,,,,,हरियाणा — 8%,,,,छत्तीसगढ़ सबसे ज़्यादा 18%  …. अब लोकसभा को देख लीजिये,,,,लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ 15% और राज्यसभा में 13% है,,,मतलब महिलाओ की आधी आबादी, लेकिन असल फैसलों में भागीदारी 10-15%… सवाल उठता है क्यों?

2022 विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड में महिला मतदाता पुरुषों से अधिक थीं। फिर भी तीनों बड़ी पार्टियों ने 10% से भी कम टिकट महिलाओं को दिए।बीजेपी ने 8, कांग्रेस ने 5, आम आदमी पार्टी ने 7 महिलाओं को टिकट दिए, यानि 210 सीटों में सिर्फ 20 महिलाएं मैदान में उतरीं। इनमें से भी आधी महिलाएं किसी नेता की बेटी, पत्नी या बहू थीं। जिनको अपने परिवार की राजनीतिक विरासत संभालने के लिए टिकट मिला,,,,लेकिन आम घर की महिलाओं को टिकट क्यों नहीं? इस पर राजनीतिक दल कहते हैं,,,,“चुनाव जीतने के लिए जिताऊ उम्मीदवार चाहिए,,,जबकि राजनीतिक जानकार  मानते हैं कि हमारी राजनीति धनबल और बाहुबल पर चलती है। शराब, पैसे और माफिया का खेल चलता है।ऐसे माहौल में महिलाएं चुनाव लड़ने में खुद को असहज पाती हैं।
 
 

जानकारों की माने तो उत्तराखंड की राजनीति में खनन और शराब माफिया का भी प्रभाव है,,,,राजनीति एक सिंडिकेट की तरह काम करती है, जिसमें सत्ता पक्ष, विपक्ष, अफसर, माफिया और मीडिया का गठजोड़ है। यही 5-7 हज़ार लोग, सवा करोड़ की आबादी की राजनीति तय कर रहे हैं।,,,,,
लेकिन दोष केवल सिस्टम का ही नहीं है,राजनीतिक दलों का रवैया भी दोषी है। हर बार चुनाव में कहते हैं, “महिलाओं को टिकट देंगे,”लेकिन देने में कंजूसी करते हैं और मज़े की बात देखिए…जो महिलाएं चुनाव लड़ती हैं, उनका जीतने का प्रतिशत भी पुरुषों से अधिक होता है। महिलाओं के जीतने की दर 16.5% है,जबकि पुरुषों की 11.8%। यानी महिलाएं बेहतर परफॉर्म कर रही हैं.. फिर टिकट देने में कंजूसी क्यों? सवाल ये  नहीं है कि महिलाएं राजनीति में क्यों नहीं हैं,सवाल यह है कि उन्हें आने से रोका क्यों जा रहा है? देश आधा उनका है,तो फैसलों में हिस्सा आधा क्यों नहीं?
 

 

एक बात और ,,,महिलाओं की सुरक्षा हर चुनाव में मुद्दा बनती है।‘महिला हेल्पलाइन’, ‘पिंक पेट्रोलिंग’, ‘महिला सुरक्षा ऐप’ जैसे नाम गिनाए जाते हैं।लेकिन क्या महिलाएं सच में सुरक्षित हैं?उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में महिलाओं को रोज़ 5-10 किलोमीटर पैदल चलकर पानी और लकड़ी लानी पड़ती है।रास्ते में छेड़छाड़ और यौन हिंसा की घटनाएं होती हैं।कई मामलों में शिकायत करने पर पुलिस भी गंभीरता से नहीं लेती।जब महिलाओं की सुरक्षा ही नहीं हो पा रही,तो राजनीति में आने पर भी वह कैसे सुरक्षित महसूस करेंगी?क्योंकि राजनीती में तो इससे बढ़कर  उन्हें ट्रोलिंग, गाली-गलौज, चरित्र हनन का सामना करना पड़ता है जो आम महिला नेता के लिए किसी यातना से कम नहीं



महिलाओं के नाम पर कई योजनाएं भी बनी हैं।महिला उद्यमिता योजना’, ‘महिला स्टार्टअप फंड’, ‘मुख्यमंत्री महिला सशक्तिकरण योजना’…लेकिन 2024 में केवल 18% सरकारी फंडिंग महिला उद्यमियों को मिली।महिला स्टार्टअप में 60% प्रोजेक्ट फंड की कमी से बंद हो गए।ज्यादातर योजनाएं कागज तक सीमित रह गईं।सरकारी आंकड़ों में जो महिला आत्मनिर्भर दिखाई जाती है,ज़मीन पर हालात अलग हैं।हमारे समाज में महिलाओं को देवी का दर्जा दिया गया है।लेकिन क्या राजनीति में उन्हें वही दर्जा दिया गया? क्या हम महिलाओं को सिर्फ त्योहारों में पूजने के लिए देवी मानते हैं,या उन्हें फैसलों की मेज़ पर भी बराबरी का दर्जा देना चाहते हैं?
अगर हम एक सशक्त और निष्पक्ष लोकतंत्र चाहते हैं,तो पंचायतों में उन्हें फैसले लेने का अधिकार देना होगा न की उनके पति ,पिता या भाई को  ,,, विधानसभा और संसद में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी होगी।वो भी नाम मात्र की नहीं, असल नेतृत्व के साथ। महिलाओं को सिर्फ घोषणा पत्रों और पोस्टरों की शोभा नहीं बल्कि उन्हें असली सत्ता और फैसलों में बराबरी का हिस्सा देना होगा ।
जब महिलाएं असलियत में आगे आएंगी,तो राजनीति में भी ईमानदारी, संवेदनशीलता और पारदर्शिता आएगी। उत्तराखंड की महिलाएं पहाड़ की चट्टानों सी मजबूत हैं। वो खेत संभाल सकती हैं, जंगल से लकड़ी ला सकती हैं, बच्चों की परवरिश कर सकती हैं,तो राजनीति भी संभाल सकती हैं,जरूरत है, उन्हें सिर्फ मौका देने की।