मप्र के नए मुख्यमंत्री मोहन यादव का नाम चौंकाने वाला रहा। इसके साथ ही मध्यप्रदेश का सीएम बनने की दौड़ से सभी नाम बाहर हो गए। अब मप्र की कमान मोहन यादव के हाथ में रहेगी। यानी प्रदेश में अब शिव का राज नहीं मोहन राज होगा। मोहन यादव ने अपने राजनीति सफर की शुरुआत छात्र जीवन से की थी। अब वे प्रदेश के सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हो गए हैं।
छात्र राजनीति से करियर की शुरुआत करने वाले डॉ. मोहन यादव को भाजपा ने बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। अगले पांच साल के लिए डॉ. मोहन यादव को जिम्मेदारी सौंपी गई है। उनके अलावा जगदीश देवड़ा और राजेंद्र शुक्ला प्रदेश के नए उपमुख्यमंत्री की जिम्मेदारी संभालेंगे। वहीं नरेंद्र सिंह तोमर को एमपी विधानसभा स्पीकर की जिम्मेदारी दी गई है। डॉ. मोहन यादव 2013 और 2018 के बाद 2023 में भी उज्जैन दक्षिण विधानसभा सीट पर चुनाव जीते हैं। डॉ. मोहन यादव का जन्म 25 मार्च 1965 को मध्य प्रदेश के उज्जैन में हुआ था। उनके पिता पूनमचंद यादव और माता लीलाबाई यादव हैं। उनकी पत्नी सीमा यादव हैं।
मोहन यादव की शिक्षा और करियर
डॉ. मोहन यादव माधव विज्ञान महाविद्यालय से पढ़ाई की। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद उज्जैन के नगर मंत्री रहे हैं। 1982 में छात्र संघ के सह-सचिव चुने गए थे। भाजपा की राज्य कार्यकारिणी के सदस्य और सिंहस्थ मध्य प्रदेश की केंद्रीय समिति के सदस्य रहे हैं। मध्य प्रदेश विकास प्राधिकरण केप्रमुख, पश्चिम रेलवे बोर्ड में सलाहकार समिति के सदस्य भी रहे हैं।
कांग्रेस के इन आरोपों का कर चुके हैं सामना
उज्जैन के मास्टर प्लान को लेकर कांग्रेस ने गंभीर आरोप लगाए थे। कहा था कि मोहन यादव ने अपने परिवार को लाभ पहुंचाने के लिए मास्टर प्लान को गलत तरीके से पास कराया है। यादव ने इन आरोपों को खारिज कर दिया। लोगों ने भी इनआरोपों को गंभीरता से नहीं लिया और मोहन यादव को ही दोबारा विधायक बनाकर भोपाल भेजा है।
इन मामलों में रहे चर्चा में
माता सीता को लेकर एक विवादित बयान भी चर्चा में रहा है। उन्होंने कहा था कि मर्यादा के कारण भगवा राम को सीता को छोड़ना पड़ा था। उन्होंने वन में बच्चों को जन्म दिया। कष्ट झेलकर भी राम की मंगलकामनना करती रहीं। आज के दौर में ये जीवन तलाक के बाद की जिंदगी जैसा है।
जानकारी के मुताबिक शिवराज सिंह चौहान ने ही मोहन यादव के नाम का प्रस्ताव विधायक दल की बैठक में किया था। इस एलान के साथ ही सभी कयासों पर विराम लग गया है। अब सूबे की कमान मोहन यादव के हाथों में होगी। सूत्रों का कहना है कि मोहन यादव का नाम आरएसएस ने ही दिल्ली हाईकमान को प्रस्तावित किया था। इसके बाद इनके नाम पर सहमति बन गई। नाम की घोषणा से बाद सबसे पहले संघ ने ही यादव को बधाई दी। उन्होंने भरे समारोह में फोन उठा कर बधाई स्वीकार भी की।
मध्यप्रदेश में दो उपमुख्यमंत्री भी होंगे। इनमें जगदीश देवड़ा और राजेंद्र शुक्ला शामिल हैं। जगदीश देवड़ा मल्हारगढ़ और राजेंद्र शुक्ला बिजावर से विधायक हैं। इसके अलावा स्पीकर पद के लिए नरेंद्र सिंह तोमर के नाम का एलान किया गया है।
उत्तराखंड में आयोजित दो दिवसीय वैश्विक निवेशक सम्मेलन के दूसरे और अंतिम दिन शनिवार को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए। वैश्विक निवेशक सम्मेलन के दूसरे दिन पर्यटन एवं नागरिक उड्डयन, इंफ्रास्ट्रक्चर, वन एवं सहयोग क्षेत्र, उद्योग-स्टार्टअप, आयुष व वेलनेस, सहकारिता एवं खाद्य प्रसंस्करण विषय पर छह सत्र आयोजित किए गए।
इस खास मौके पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उत्तराखंड ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट 2023 के समापन सत्र में भाग लिया और संबोधन दिया। इस मौके पर अमित शाह ने कहा कि मैंने उत्तराखंड के सीएम पुष्कर धामी से लक्ष्य के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि 2 लाख करोड़ रुपये, लेकिन आज 3.5 लाख करोड़ रुपये के एमओयू पर हस्ताक्षर हुए हैं। मैं इसके लिए राज्य प्रशासन को बधाई देना चाहता हूं। सीएम धामी के नेतृत्व में प्रदेश ने कमाल किया है।
दुनिया के सामने उदाहरण बनेगा उत्तराखंड
गृह मंत्री शाह ने कहा कि अब उत्तराखंड बनेगा। इसका विकास होगा और इसकी अलग पहचान बनेगी। ये इन्वेस्टर्स समिट दुनिया भर में यह एक मजबूत उदाहरण है कि यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता से समझौता किए बिना और पर्यावरण-अनुकूल तरीकों का पालन करके खुद को व्यापार से जोड़ सकता है।
बतौर गृह मंत्री अमित शाह, सीएम धामी कहते हैं कि यहां कुदरत है…देव हैं…लेकिन मैं इसके साथ ये भी कहूंगा कि यहां भ्रष्टाचार मुक्त शासन भी है। जोकि इनवेस्टमेंट मुक्त निवेश के लिए भी जरूरी है। कहा कि पारदर्शिता उत्तराखंड का स्वभाव है। उन्होंने निवेशकों से कहा कि वह निश्चिंत होकर राज्य में निवेश करें, उन्हें भ्रष्टाचार नहीं मिलेगा।
कई हस्तियां भी बनीं निवेशक सम्मेलन की गवाह
परमार्थ निकेतन जाएंगे गृहमंत्री
केंद्र सरकार के इस फैसले के तमाम सियासी मायने भी निकाले जा रहे हैं। दरअसल जबसे ये योजना शुरू हुई है, तब तक आज यानि दिसंबर, 2023 तक कुल 23 राज्यों में विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। इनमें से 13 राज्यों में भाजपा या तो सीधे या गठबंधन के सहयोगियों के दम पर सत्ता में आ चुकी है। इसमें गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में सरकार में वापसी भी शामिल है। भाजपा गठबंधन असम, पुद्दुचेरी, गुजरात, गोआ, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान में सत्तारूढ़ हो चुका है।
देश में हर साल चुनाव दर चुनाव के बीच कैसे इस योजना को समय-समय पर बढ़ाया गया। इस पर भी नजर डाल लेते हैं। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना की शुरुआत अप्रैल से जून 2020 में हुई। फिर जुलाई से नवंबर 2020 तक के लिए इसे बढ़ाया गया। इसके बाद मई और जून 2021 में इस योजना का तीसरा चरण आया। फिर जुलाई से नवंबर 2021 तक योजना ने चौथा चरण, दिसंबर 2021 से मार्च 2022 तक पांचवा चरण, अप्रैल 2022 से सितंबर 2022 तक छठा चरण, अक्टूबर 2022 से दिसंबर 2022 तक सातवां चरण और जनवरी 2023 से दिसंबर 2023 तक आठवां चरण पूरा किया।
अब योजना को पांच साल तक बढ़ा दिया गया है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स पर लिखा, “देश के मेरे परिवारजनों में से कोई भी भूखा नहीं सोए, हमारी सरकार इसके लिए प्रतिबद्ध है। अपनी इसी भावना को ध्यान में रखते हुए हमने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को अगले पांच वर्षों तक बढ़ा दिया है। यानि मेरे गरीब भाई-बहनों के लिए वर्ष 2028 तक मुफ्त राशन की व्यवस्था निरंतर जारी रहेगी। इसका फायदा करीब 81 करोड़ देशवासियों को मिलेगा। मुझे विश्वास है कि हमारा यह प्रयास उनके जीवन को अधिक से अधिक आसान और बेहतर बनाएगा।’’
यही नहीं पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में जहां भाजपा का जनाधार काफी सिमटा हुआ था, वहां भी पार्टी अब वामदलों और कांग्रेस को पीछे छोड़कर प्रमुख विपक्षी दल बनकर उभरी है। इसी तरह बिहार चुनाव में भी बीजेपी का ग्राफ बढ़ गया।
बिहार में भाजपा का बढ़ा ग्राफ
2020 में बिहार और दिल्ली के विधानसभा चुनाव हुए। बिहार में बीजेपी ने पहले से बेहतर प्रदर्शन करते हुए 74 सीटें हासिल कीं। इस चुनाव में नीतीश कुमार की जदयू 43 सीट लेकर तीसरे पर खिसक गई। वहीं राजद 75 सीटों के साथ सबसे बड़ा दल बनी। दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा को उम्मीद के मुताबिक सफलता तो नहीं मिली। वह सिर्फ 8 सीटें ही जीत सकी।लेकिन इस बार उसने 2015 के मुकाबले अपने वोट प्रतिशत में काफी सुधार कर लिया। कुल 63 सीटें ऐसी रहीं, जहां बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ गया। इनमें 20 सीटों पर तो 10 फीसदी से ज्यादा का वोट शेयर बढ़ा। नजफगढ़ सीट पर तो वोट शेयर में 21.5 फीसदी की बढ़त दर्ज हुई। बहरहाल, दिल्ली में आम आदमी पार्टी 62 सीटें जीतकर एकतरफा विजेता बनी।
तमिलनाडु में पहली बार चार विधायक, पश्चिम बंगाल में प्रमुख विपक्षी दल
वर्ष 2021 में केंद्र ने फ्री अनाज योजना को दो बार बढ़ाया। पहला मई और जून 2021, फिर जुलाई से नवंबर 2021 तक। इसी साल असम, केरल, पुद्दुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में चुनाव हुए। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को बीजेपी चुनौती दे रही थी। हालांकि चुनाव परिणाम आए तो ममता बनर्जी ने आसानी से भाजपा को हरा दिया। लेकिन इस हार के बावजूद भाजपा का प्रदर्शन चर्चा में रहा। दरअसल बीजेपी ने 2016 के विधानसभा चुनावों में बंगाल में सिर्फ 3 सीटें जीती थीं। उस दौरान उसका वोट प्रतिशत करीब 10 फीसदी था। लेकिन 2021 में ये वोट शेयर सीधे उछलकर 38.1 फीसदी पर पहुंच गया और बीजेपी ने 77 सीटें अपने नाम की। ये प्रदर्शन इसलिए और भी महत्वपूर्ण माना गया क्योंकि अभी तक बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के सामने लेफ्ट और कांग्रेस के दल ही चुनौती देने वाले माने जाते थे। लेकिन बीजेपी ने इन्हें किनारे लगा दिया और प्रमुख विपक्षी दल बनकर उभरी।
असम में दमदार वापसी
असम के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की साख दांव पर लगी थी क्योंकि वह यहां सत्ता बनाए रखने की लड़ाई लड़ रही थी। आखिरकार बीजेपी सत्ता बचाने में कामयाब रही। चुनाव में बीजेपी ने 33.21 वोट शेयर के साथ 60 सीटें जीतीं। उसके सहयोगी दल असम गण परिषद ने 9, यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी ने 6 सीटें अपने नाम कीं। वहीं प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस 29.67 वोट शेयर के बावजूद 29 सीटें ही जीत सकी।
तमिलनाडु में पहली बार खिला कमल
इसी तरह तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में भाजपा के 20 में से चार उम्मीदवार विजयी हुए। इस जीत ने पार्टी के 15 साल लंबे इंतजार को खत्म कर दिया। भाजपा की तरफ से राष्ट्रीय महिला शाखा की अध्यक्ष वनाथी श्रीनिवासन, जयललिता के निधन के बाद भाजपा में शामिल हुए अन्नाद्रमुक के पूर्व मंत्री नैनेर नागेंद्रन, सीएस सरस्वती और भाजपा के वरिष्ठ पदाधिकारी एमआर गांधी ने जीत हासिल की।
केरल में साफ मगर बढ़ गया वोट का ग्राफ
केरल विधानसभा चुनाव में भाजपा को एक भी सीट पर जीत नसीब नहीं हुई। लेकिन भाजपा के वोट शेयर में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। 2016 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने 10.6 फीसदी वोट हासिल किए, वहीं 2021 में उसने 11.30 फीसदी वोट मिले। 2016 में भाजपा प्रत्याशी 6 विधानसभा सीटों पर दूसरे स्थान पर रहे थे, वहीं 2021 में 9 सीटों पर बीजेपी दूसरे नंबर पर रही।
पुद्दुचेरी में सरकार
इसी तरह पुद्दुचेरी विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपने सहयोगी ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस के साथ आसानी से सरकार बना ली। बीजेपी को इस चुनाव में 6 सीटें मिलीं, जबकि एनआर कांग्रेस को 10 सीटें मिलीं। चुनाव में इंडियन नेशनल कांग्रेस को महज 2 सीटों से संतोष करना पड़ा। बता दें 33 सीटों वाली इस विधानसभा में 30 सीटों पर विधायक चुनाव के जरिए चुनकर आते हैं, वहीं बाकी की 3 सीटों पर केंद्र द्वारा नामित किए जाते हैं। 2016 में केंद्र सरकार ने इसके लिए बीजेपी के सदस्यों को ही नामित किया था।
इसके बाद आया वर्ष 2022, इससे पहले ही मोदी सरकार ने मुफ्त अनाज की स्कीम को दिसंबर 2021 से मार्च 2022 तक बढ़ा दिया था। इस साल दो बार और ये स्कीम बढ़ी, पहले अप्रैल 2022 से सितंबर 2022 तक फिर अक्टूबर 2022 से दिसंबर 2022 तक। इस साल कुल 7 राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, गोआ, मणिपुर और पंजाब के विधानसभा चुनाव हुए।
यूपी चुनाव में तो भाजपा ने सारे रिकॉर्ड ही तोड़ डाले। यहां भाजपा गठबंधन ने 403 में से कुल 274 सीटें जीतीं। योगी आदित्यनाथ 37 साल बाद यूपी में लगातार दूसरी बार बहुमत की सरकार बनाने वाले मुख्यमंत्री बन गए। सीधी लड़ाई में भाजपा को जहां 45 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले, वहीं सपा 36 प्रतिशत वोट हासिल करने के बावजूद काफी पीछे रह गई।
यूपी में बजा मुफ्त अनाज का डंका
इस चुनाव में मुफ्त अनाज स्कीम एक बड़ा मुद्दा बनी और बीजेपी ने पूर्वांचल से लेकर वेस्ट यूपी तक शानदार जीत हासिल की। चुनाव की शुरुआत उन जिलों से हुई, जहां जहां किसान आंदोलन का सर्वाधिक असर था। उस चरण की 58 सीटों में भाजपा को 46 सीटें मिली। तिकुनिया कांड के कारण चर्चा में आए लखीमपुर में विपक्षी दलों का का खाता तक नहीं खुला। दूसरा व सातवां चरण ही ऐसा रहा जहां सपा भाजपा को टक्कर देती दिखी। लेकिन पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी व सीएम के गृह जिले गोरखपुर में क्लीन स्वीप करने के साथ ही भाजपा ने नोएडा, गाजियाबाद, हापुड़, बुलंदशहर, शाहजहांपुर, पीलीभीत, हरदोई, गोंडा, कन्नौज, कुशीनगर, मिर्जापुर सहित कई जिलों में सारी सीटें अपने झोली में डाल लीं।
उत्तराखंड में वापसी
इसी तरह उत्तराखंड में भी भाजपा दोबारा सरकार बनाने में कामयाब रही। भले ही इसके सीएम पुष्कर सिंह धामी अपना चुनाव हार किए लेकिन 70 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा के 47 विधायक पहुंच गए। 2016 तके 57 सीटें जीतने वाली भाजपा को 10 सीटों को नुकसान जरूर हुआ।
मणिपुर और गोआ में भी कमल
मणिपुर विधानसभा चुनावों में भी भाजपा ने 32 सीटें हासिल की और सरकार बना ली। उसने 2017 के विधानसभा चुनावों में 21सीटें ही हासिल की थी। वहीं उस चुनाव में 28 सीटें जीतने वाली कांग्रेस सिर्फ 5 सीटों पर सिमटकर रह गई। 40 विधानसभा सीटों वाले प्रदेश गोआ में भाजपा बेहतर प्रदर्शन् के किया और 2017 के मुकाबले 7 ज्यादा 20 सीटें जीतीं। कांग्रेस को चुनावों में 6 सीटों का नुकसान हुआ और वह 11 पर खड़ी रह गई।
हिमाचल और पंजाब में खराब प्रदर्शन
हालांकि भाजपा को हिमाचल प्रदेश में उम्मीद के अनुसार लाभ नहीं मिला। यहां की जनता से 1985 से कायम रिवाज को बनाए रखा। चुनाव में कांग्रेस 40 सीटें जीती, जबकि बीजेपी 25 पर सिमट गई। 2017 में बीजेपी ने 44 सीटें जीतकर बहुमत की सरकार बनाई थी और कांग्रेस सिर्फ 21 सीटों पर ही सिमटकर रह गई थी। इसी तरह पंजाब में भाजपा के मत प्रतिशत में हल्का सा इजाफा जरूर हुआ और वह 6.6 प्रतिशत हो गया लेकिन वह सिर्फ दो सीटें ही जीत सकी।
गुजरात में रिकॉर्डतोड़ प्रदर्शन
गुजरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए। बीजेपी ने यहां की 182 विधानसभा सीटों में से 156 सीटें अपने नाम कीं। यह गुजरात में किसी पार्टी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा। इससे पहले 1985 में माधव सिंह सोलंकी की अगुवाई में कांग्रेस ने 149 सीटें जीती थीं। कांग्रेस इस चुनाव में सिर्फ 17 सीटों पर सिमटकर रह गई।
इन जीतों के साथ में फ्री राशन स्कीम का कितना योगदान था, इसका अंदाजा केंद्र सरकार के इस फैसले से ही लगाया जा सकता है। अभी तक कुछ महीनों के लिए ही इस स्कीम को बढ़ाया जाता था लेकिन इस साल इसे जनवरी 2023 से सीधे दिसंबर 2023 तक के लिए बढ़ा दिया गया।
कर्नाटक में सत्ता से बाहर हुई भाजपा पर वोट शेयर बरकरार
हालांकि इस साल कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा को भारी नुकसान हुआ और वह सत्ता से बाहर हो गई। 2018 में जहां भाजपा 104 सीटें जीतकर सरकार बनाने में सफल रही थी, वहीं इस बार वह सिर्फ 66 सीटें ही जीत सकी। कांग्रेस ने इस चुनाव में शानदार प्रदर्शन किया और 80 सीटों से बढ़कर 135 सीटें अपने नाम की और सत्ता पर काबिज हुई। खास बात ये ही रही कि इस चुनाव में बीजेपी के वोट शेयर में कोई बदलाव नहीं हुआ। वह 36 प्रतिशत पर बनी रही। वहीं कांग्रेस 7 प्रतिशत ज्यादा 43 फीसदी वोट शेयर के साथ जीती। कई राजनीतिक विश्लेषकों ने ये जरूर कहा कि बीजेपी का ये वोट शेयर कर्नाटक के केवल दो क्षेत्रों पुराना मैसूर और बेंगलुरु से आया। जबकि 2018 के चुनावों में यह वोट शेयर कर जगह से था। दक्षिण कर्नाटक में बिना सीटें जीते जेडीएस के वोट शेयर में सेंधमारी की।
त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में एनडीए सरकार
त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन को नुकसान जरूर हुआ लेकिन सत्ता उनके हाथ बनी रही। बीजेपी गठबंधन को इस चुनाव में 33 सीटें मिली, 2018 के मुकाबले यह 11 सीटें कम रही। तब अकेले बीजेपी को 36 सीटें मिली थीं और उसके सहयोगी दल आईपीएफटी को 8 सीटें मिली थीं। इसी तरह पिछली बार बीजेपी को 43 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले थे, इस बार उसे 39 प्रतिशत वोट मिले। इसी तरह नागालैंड और मेघायल में भी भाजपा गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब रहा।
पांचों चुनावी राज्यों के परिणाम सामने आ चुके हैं, जिसके बाद यह तय हो गया है किस राज्य में कौन-सी पार्टी अपनी सरकार बनाने जा रही है। दरअसल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा ने प्रचंड जीत हासिल की है। वहीं, तेलंगाना में कांग्रेस ने बीआरएस पार्टी के हाथ से सत्ता छीन ली है। इसके अलावा, मिजोरम में जोरम पीपुल्स मूवमेंट (Zoram People’s Movement) को दो-तिहाई से ज्यादा बहुमत मिला है।
जानिए कहां किसकी हालत कैसी?
सत्ता में आने के बाद अब पार्टियों के सामने एक नई चुनौती आकर खड़ी हो गई है। दरअसल, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में अब तक भाजपा ने किसी चेहरे पर मुहर नहीं लगाई है, जबकि कांग्रेस द्वारा तेलंगाना का सीएम तय होने को लेकर पार्टी में ही विरोध देखा जा रहा है। हालांकि, तेलंगाना में स्थिति स्थिर है और सीएम पद के लिए एक ही नाम सामने आ रहा है।
हालांकि, यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि किसी भी राज्य में पार्टियों ने आधिकारिक तौर पर किसी भी नाम की घोषणा नहीं की है।
मध्य प्रदेश में शिवराज या कोई और?
मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता पर अपनी पकड़ को और भी मजबूत कर लिया है। दरअसल, पांच साल तक अपनी सत्ता के जरिए जनता के दिलों पर छाप छोड़ने वाली पार्टी ने एक बार फिर सत्ता पर अपना हक बरकरार रखा है। भाजपा ने प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले काफी अच्छा प्रदर्शन रखा है। इसके बाद भी प्रदेश में भाजपा के सामने एक बड़ी मुसीबत आकर खड़ी हो गई है। दरअसल, प्रदेश में अब तक सीएम पद के लिए किसी के नाम पर मुहर नहीं लगाई गई है।
हालांकि, प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान प्रमुख नेताओं में से एक है, जिन्होंने इस बार भाजपा को भारी जीत दिलाई है। उन्होंने 1990 में अपने निर्वाचन क्षेत्र बुधनी में पहली जीत हासिल की थी, उसके बाद से आज तक वह सीट पर अपना कब्जा बनाए हुए हैं। उन्होंने पहली बार 2005 में सीएम पद की शपथ ली थी और पिछले पांच सालों में भी उन्होंने सीएम पद पर काबिज रहते हुए काफी प्रसिद्धि पाई है।
बीजेपी पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद इंदौर-एक विधानसभा सीट से विधायक चुने गए कैलाश विजयवर्गीय का प्रदर्शन भी अपनी सीट पर काफी बेहतर रहा है। इनको मुख्यमंत्री पद के लिए शिवराज सिंह चौहान का प्रबल दावेदार माना जा रहा है। हालांकि, कैलाश विजयवर्गीय के अलावा केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल, ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरेंद्र सिंह तोमर जैसे बड़े नेताओं को भी पद के लिए अन्य संभावितों में देखा जा रहा है।
राजस्थान में मुख्यमंत्री पद पर सस्पेंस बरकरार-
राजस्थान में भाजपा ने कांग्रेस के हाथ से सत्ता छीनकर उसे करारी शिकस्त दी है। फिलहाल, प्रदेश में भाजपा ने सीएम पद पर किसी का नाम तय नहीं किया है। हालांकि, कतार में भाजपा के कई बड़े और दिग्गज नेताओं का नाम शामिल है। दरअसल, अब तक राजस्थान में भाजपा सरकार बनने के बाद वसुंधरा राजे ने सत्ता संभाली है, लेकिन इस बार भाजपा बिना सीएम चेहरे के ही चुनावी मैदान में उतरी थी।
वसुंधरा राजे दो बार राजस्थान में सीएम पद संभाल चुकी हैं। वसुंधरा राजे 4 बार विधायक रह चुकी हैं। 5 बार लोकसभा सांसद रह चुकी हैं 14 नवंबर, 2002 से 14 दिसंबर, 2003 तक पार्टी प्रदेशाध्यक्ष रही हैं। इसके अलावा, उनका पहला कार्यकाल 2003 से 2008 तक और दूसरा कार्यकाल 2013 से 2018 तक रहा।
इस बार सीएम रेस में बाबा बालकनाथ योगी का नाम भी शामिल है। अलवर के सांसद बाबा बालकनाथ को लोकप्रिय रूप से राजस्थान के योगी के रूप में जाना जाता है और वह मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। तिजारा विधानसभा क्षेत्र से 40 वर्षीय नेता अपनी विवादास्पद टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं।
जयपुर के शाही परिवार की सदस्य दीया कुमारी साल 2013 में भाजपा में शामिल हुईं। उसके बाद से उन्होंने तीन चुनावों में जीते हैं। वह 2019 के आम चुनाव में 5.51 लाख वोटों के अंतर से जीती थीं। जो की उस वक्त की सबसे बड़ी जीत में से एक थी। इन्हें राजस्थान में सीएम पद के लिए एक अच्छा दावेदार माना गया है।
इसके अलावा, सीएम रेस में सीपी जोशी, किरोड़ी लाल मीणा, अर्जुन राम मेघवाल, गजेंद्र सिंह शेखावत और ओम बिरला का नाम शामिल है।
छत्तीसगढ़ में छाएगा किस चेहरे का जादू
छत्तीसगढ़ में भी भाजपा ने कांग्रेस से सत्ता की कुर्सी छीनकर अपनी पकड़ बना ली है। भाजपा ने इस बार मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किए बिना ही चुनाव लड़ा था। ऐसे में भाजपा की इस जीत के बाद पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष अरुण साव को सीएम पद का प्रबल दावेदार माना जा रहा है। इसके अलावा, भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष लता उसेंडी, पूर्व भाजपा अध्यक्ष विष्णुदेव साय और भाजपा के महामंत्री व पूर्व आईएएस ओपी चौधरी के नाम को लेकर भी चर्चा है।
प्रदेश में लगातार आदिवासी मुख्यमंत्री की भी मांग होती रही है । ऐसे में अनुसूचित जनजाति(एसटी) वर्ग से प्रदेश में बड़े चेहरे में केंद्रीय राज्यमंत्री रेणुका सिंह, पूर्व राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम, पूर्व भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय, भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष लता उसेंडी व युवा नेता में पूर्व मंत्री केदार कश्यप का नाम पहले आता है।
तेलंगाना में कांग्रेस में छिड़ा विरोध
तेलंगाना में कांग्रेस ने बीआरएस को हराकर पहली बार राज्य में जीत हासिल की है। चुनाव परिणाम आने के दो दिन बाद भी मुख्यमंत्री के नाम पर स्थिति साफ नहीं हुई है। तेलंगाना में मुख्यमंत्री पद के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रेवंत रेड्डी का नाम सामने आ रहा है, लेकिन अब तक कांग्रेस के जीते हुए सभी 64 विधायकों के बीच सीएम के चयन पर सहमति नहीं बन पाई है।
साथ ही, पार्टी की ओर से भी अब तक सीएम पद पर किसी के नाम की आधिकारिक घोषणा नहीं की गई है।
मिजोरम में तय हुआ नाम!
पूर्व आईपीएस लालदूहोमा की पार्टी जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) को मिजोरम में दो-तिहाई बहुमत मिला है। सोमवार को हुई मतगणना में 40 सदस्यीय मिजोरम विधानसभा में 27 सीटें जीतकर जेडपीएम ने मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) को सत्ता से बाहर कर दिया।
इसके बाद ही, सीएम पद के लिए लालदूहोमा के नाम का शोर है, लेकिन अब तक पार्टी की ओर से इस नाम की आधिकारिक घोषणा होना बाकी है।
भाजपा के खिलाफ एकजुट हुए विपक्षी दलों के गठबंधन इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस (इंडिया) की छह दिसंबर को होने वाली बैठक टल गई है। बताया गया है कि गठबंधन की कुछ पार्टियों के प्रमुख नेताओं के बैठक में न आ पाने के चलते बैठक को फिलहाल स्थगित करने का फैसला किया गया।
कांग्रेस के सूत्रों के मुताबिक, अब छह दिसंबर को शाम छह बजे इंडिया गठबंधन में शामिल पार्टियों के सांसदों की बैठक आयोजित की जाएगी। बाद में दिसंबर के तीसरे हफ्ते में मल्लिकार्जुन खरगे के आवास पर इस गठबंधन के प्रमुख नेताओं की औपचारिक समन्वय बैठक होगी।
गौरतलब है कि सपा नेता अखिलेश यादव और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने पहले ही इंडिया की बैठक में जाने में असमर्थता जताई थी। इसके बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और द्रमुक के नेता एमके स्टालिन ने चक्रवात के कारण पैदा हुए हालात के चलते बैठक में शामिल नहीं हो सकते थे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अस्वस्थ हैं तथा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के परिवार में वैवाहिक कार्यक्रम है। ऐसे में आगे की तिथि के लिए बैठक को स्थगित किया गया है।’’
यह बैठक ऐसे समय होने वाली थी जब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के हालिया विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है। कांग्रेस ने तेलंगाना में जीत दर्ज की है।
राजस्थान में चुनाव नतीजे आने के बाद सीएम पद को लेकर लगातार सस्पेंस बढ़ता जा रहा है आज वसुंधरा राजे के घर पर करीब 20 से ज्यादा BJP के विधायक पहुंच चुके हैं. ऐसे में चर्चा गरम है कि क्या वसुंधरा को हाईकमान से ग्रीन सिग्नल मिल गया है सीएम पद की ताजपोशी का या राजस्थान की इस पूर्व सीएम ने आग से खेलने की तैयारी कर ली है? क्योंकि बीजेपी में किसी भी नेता की इतनी हिम्मत नहीं है कि केंद्रीय नेतृत्व के बिना ग्रीन सिग्नल के अपने घर पर विधायकों को परेड कराने लगे. दूसरी ओर सीएम पद के एक और दावेदार माने जा रहे बालकनाथ दिल्ली पहुंच गए हैं. इस बीच सवाल यह उठ रहे हैं कि क्या वसुंधरा बीजेपी में सचिन पायलट की राह पर हैं? सचिन पायलट को लगता था कि उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया है और कांग्रेस की जीत के कारण वो ही हैं. हालांकि कभी भी उनको 20 से अधिक विधायकों का समर्थन खुलकर नहीं मिला.

जिस तरह वसुंधरा के घर विधायक पहुंच रहे हैं और प्रेस के सामने आकर वसुंधरा को सीएम बनाने की बात कर रहे हैं उसे देखकर कोई भी कह सकता है कि वसुंधरा राजे ने प्रेशर पॉलिटिक्स शुरू कर दी है. BJP के नवनिर्वाचित जहाजपुर से आने वाले विधायक गोपीचंद मीणा ने वसुंधरा राजे से मुलाकात की और कहा कि लोग वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. ब्यावर से आने वाले विधायक सुरेश रावत भी वसुंधरा राजे से मिलने पहुंचे. उन्होंने कहा कि वसुंधरा ने पहले बहुत अच्छा काम किया है, लेकिन सीएम आलाकमान जिसे बनाए हम पार्टी के साथ हैं.इसके पहले बीजेपी विधायक बहादुर सिंह कोली जयपुर में वसुंधरा राजे के आवास में एंट्री करते हुए बोले थे कि वसुंधरा राजे को ही सीएम बनना चाहिए.हालांकि उन्होंने भी कहा कि वह पार्टी के फैसले के साथ हैं. हालांकि पार्टी के फैसले के समर्थन की बात तभी तक की जाती है जब तक उम्मीद रहती है कि आलाकमान हमारी बातें सुन रहा है.
अगर वसुंधरा पार्टी पर प्रेशर बनाने के लेवल तक खुद को ले जाती हैं तो इसका अंजाम उनके पक्ष में जाएगा इसकी उम्मीद न के बराबर है.वर्तमान में राजस्थान की राजनीति में कांग्रेस भी इतनी ताकतवर नहीं है कि उसका सपोर्ट उन्हें मिल सके. अभी उनके घर पर कहा जा रहा है कि करीब 20 विधायक पहुंचे हुए हैं. यह सही है कि जिन विधायकों ने उनके घर पहुंचने की हिम्मत दिखाई है वास्तव में वसुंधरा के कट्टर समर्थक होंगे. हो सकता है कि एक दो विधायक और उनके पास हों. पर कांग्रेस के 69 एमएलए मिलकर भी उनका भला नहीं कर सकते. भारतीय जनता पार्टी की जो कार्यशैली है उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस पार्टी के उन 69 विधायकों का भी भरोसा नहीं है कि वो कब तक अपनी पार्टी का दामन थामे रहेंगे.वसुंधरा के समर्थन की बात तो दूर की हो जाएगी.सचिन पायलट की तरह वो 20-22 विधायकों का साथ लेकर कभी भी क्रांति नहीं कर सकेंगी. बस पायलट की तरह असंतुष्ट बनकर राजनीति करनी होगी.
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि वसुंधरा के पास राजस्थान में आज भी जबरदस्त जनसमर्थन है. उनकी रैलियों में जनता की भीड़ यह बताती थी कि राजस्थान के लोकल नेताओं में सबसे अधिक वो लोकप्रिय हैं. राजपूत की बेटी, जाटों की बहू और गुर्जरों की समधन की छवि के चलते उनकी पैठ हर वर्ग में रही है. यही कारण रहा कि बीजेपी आलाकमान ने उनको कमान तो नहीं दी पर उन्हें अलग-थलग भी नहीं होने दिया. हालांकि वसुंधरा इस बार के चुनावों में अपने होम डिस्ट्रिक्ट में ही कुछ नहीं कर पाईं. धौलपुर जिले की चारों सीटों में से एक भी बीजेपी नहीं जीत सकी है. इसी तरह वसुंधरा के कई खास लोग अभी अपना चुनाव नहीं जीत सके हैं. फिर भी अगर वसुंधरा प्रेशर बनाती हैं,,तो हो सकता है कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों तक पार्टी उन्हें राजस्थान की कमान सौंप दे. क्योंकि भारतीय जनता पार्टी का फोकस अभी पूरी तरह 2024 के लोकसभा चुनाव हैं. पार्टी नहीं चाहेगी कि जिस तरह अशोक गहलोत और सचिन पायलट की लड़ाई में राजस्थान में कांग्रेस का बंटाधार हो गया उसी तरह वसुंधरा राजे के चलते बीजेपी भी कमजोर हो.
राजस्थान विधानसभा चुनाव 2023 के परिणामों में कांग्रेस चारों खाने चित्त हो गई। प्रदेश की जनता ने राज बदल दिया, लेकिन रिवाज नहीं बदला। कांग्रेस की हार को लेकर सीएम अशोक गहलोत के ओएसडी लोकेश शर्मा का बड़ा बयान सामने आया है। उन्होंने हार का जिम्मेदार गहलोत को ही बता दिया। उन्होंने गहलोत पर फरेबी बताते हुए 25 सितंबर 2022 की घटना का जिक्र किया। उन्होंने कहा पूरी घटना प्रायोजित थी। आलाकमान के खिलाफ विद्रोह कर अवमानना की गई। उसी दिन से ये खेल शुरू हो गया था।
लोकेश शर्मा ने एक्स कर लिखा- लोकतंत्र में जनता ही माई-बाप है और जनादेश शिरोधार्य है, विनम्रता से स्वीकार है। मैं नतीजों से आहत जरूर हूं, लेकिन अचंभित नहीं। कांग्रेस राजस्थान में निःसंदेह रिवाज बदल सकती थी। लेकिन, अशोक गहलोत कभी कोई बदलाव नहीं चाहते थे। यह कांग्रेस की नहीं बल्कि अशोक गहलोत की शिकस्त है।गहलोत के चेहरे पर उनको फ्री हैंड देकर उनके नेतृत्व में पार्टी ने चुनाव लड़ा और उनके मुताबिक प्रत्येक सीट पर वे स्वयं चुनाव लड़ रहे थे। न उनका अनुभव चला, न जादू। हर बार की तरह कांग्रेस को उनकी योजनाओं के सहारे जीत नहीं मिली और न ही अथाह पिंक प्रचार काम आया। तीसरी बार लगातार सीएम रहते हुए गहलोत ने पार्टी को फिर हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। आज तक पार्टी से सिर्फ लिया ही लिया है, लेकिन कभी अपने रहते पार्टी की सत्ता में वापसी नहीं करवा पाए गहलोत।
आलाकमान के साथ फरेब, ऊपर सही फीडबैक न पहुंचने देना, किसी को विकल्प तक न बनने देना, अपरिपक्व और अपने फायदे के लिए जुड़े लोगों से घिरे रहकर आत्ममुग्धता में लगातार गलत निर्णय और आपाधापी में फैसले लेते रहना, तमाम फीडबैक और सर्वे को दरकिनार कर अपनी मनमर्जी और अपने पसंदीदा प्रत्याशियों को उनकी स्पष्ट हार को देखते हुए भी टिकट दिलवाने की जिद हार का कारण रही। आज के ये नतीजे तय थे। मैं स्वयं मुख्यमंत्री को यह पहले बता चुका था, कई बार आगाह कर चुका था। लेकिन, उन्हें कोई ऐसी सलाह या ऐसा व्यक्ति अपने साथ नहीं चाहिए था जो सच बताए।
क्या कहा अशोक गहलोत के OSD ने-
एक टीवी चैनल को दिए अपने इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि मैं छः महीने लगातार घूम-घूम कर राजस्थान के कस्बों-गांव-ढाणी में गया, लोगों से मिला, हजारों युवाओं के साथ संवाद कार्यक्रम आयोजित किए। लगभग 127 विधानसभा क्षेत्रों को कवर करते हुए ग्राउंड रिपोर्ट सीएम को लाकर दी। जमीनी हकीकत को बिना लाग-लपेट सामने रखा। ताकि, समय पर सुधारात्मक कदम उठाते हुए फैसले किए जा सकें, जिससे पार्टी की वापसी सुनिश्चित हो।
मैंने खुद भी चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की थी, पहले बीकानेर से फिर सीएम के कहने पर भीलवाड़ा से, जिस सीट को हम 20 साल से हार रहे थे। लेकिन, ये नया प्रयोग नहीं कर पाए। बीडी कल्ला के लिए मैंने 6 महीने पहले ही बता दिया था कि वे 20 हजार से ज्यादा मत से चुनाव हारेंगे और वही हुआ। अशोक गहलोत ने इस तरह फैसले लिए गए कि विकल्प तैयार ही नहीं हो पाए। 25 सितंबर की घटना भी पूरी तरह से प्रायोजित थी, जब आलाकमान के खिलाफ विद्रोह कर अवमानना की गई थी उसी दिन से खेल शुरू हो गया था।
क्या ये थी राजस्थान में कांग्रेस की हार की बड़ी वजह-
आपको बता दें कि राजस्थान विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को छोड़कर उनके 25 मंत्री चुनावी मैदान में उतरे थे। इनमें से 17 मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा। मंत्री प्रताप सिंह खाचरिया वास और बीडी कल्ला समेत कई बड़े चेहरों को जनता ने सिरे से खारिज कर दिया।मतलब जो गहलोत के osd कह रहे हैं वो सही साबित हुआ ,गहलोत हवा का रुख समझने में नाकाम साबित हुए. राजस्थान में कांग्रेस की हार की एक बड़ी वजह पार्टी की आपसी कलह रही. कई नेता नाराज हुए लेकिन गहलोत ने उन्हें सही तरीके से हैंडल नहीं किया. पार्टी के अंदर गुटबाजी और कई बागी नेताओं ने पार्टी का खेल बिगाड़ा. यहां तक कि कई नेताओं ने निर्दलीय चुनाव लड़ा तो कुछ को बीजेपी ने अपने पाले में कर लिया.
सचिन पायलट और अशोक गहलोत की लड़ाई तो पूरे देश में चर्चा का मुद्दा रही, दोनों नेता काम छोड़कर आपसी लड़ाई पर ज्यादा फोकस करते दिखे. सरकार बनते ही दोनों के बीच खींचतान शुरू हुई तो खत्म होने का नाम नहीं लिया. कई बार आलाकमान ने दोनों को मनाने की कोशिश की, यहां तक कि राहुल गांधी ने खुद चुनाव प्रचार के दौरान दोनों को एक साथ मंच पर लाकर ये संदेश देने की कोशिश की कि पार्टी में सबकुछ ठीक है, लेकिन दोनों के दिल नहीं मिले.राजस्थान में कांग्रेस की हार की वजह सीएम अशोक गहलोत का अहंकार भी रहा, उनका अति आत्म विश्वास और अहंकार उन्हें ले डूबा. गहलोत के साथियों ने उन पर अहंकारी होने का आरोप लगाया. खुद उनकी पार्टी के कई विधायकों ने अपनी बात न सुनने का आरोप लगाया, वहीं सचिन पायलट से उनकी लड़ाई तो पिछले साल सरकार बनने के बाद से ही चल रही है. कई बार मीडिया के सामने आकर गहलोत ने सचिन पायलट को निकम्मा और गद्दार तक कह दिया.
राजस्थान में भर्ती परीक्षाओं का पेपर लीक मामला गहलोत सरकार पर भारी पड़ा, बीजेपी ने चुनाव के दौरान इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस को खूब घेरा. पेपर लीक को लेकर गहलोत को युवाओं के गुस्से का शिकार होना पड़ा. पिछले पांच साल के गहलोत कार्यकाल में कई परीक्षाओं के पेपर लीक के मामले सामने आए, जिसको लेकर बीजेपी ने गहलोत पर एक्शन ना लेने का आरोप भी लगाया. ये मुद्दा गहलोत सरकार के लिए भारी पड़ा. कुल मिलाकर राजस्थान में गहलोत का रवैया राहुल गांधी की मेहनत पर पानी फेर गया.
भारत के पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम में विधानसभा चुनाव के वोटों के गिनती जारी है। अब तक के नतीजों में जोराम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) ने 25 सीटें जीतकर बहुमत हासिल कर लिया है। 40 सीटों वाले मिजोरम विधानसभा में बहुमत के लिए 21 सीटों की जरूरत थी। एक पूर्व आईपीएस अधिकारी, विधायक और पूर्व सांसद लालडुहोमा द्वारा स्थापित पार्टी जेडपीएम के मिजोरम में सत्ता के शिखर तक पहुंचने की कहानी बहुत दिलचस्प रही है। आइए जानते हैं इस पार्टी के बारे में सब कुछ।
जोरम पीपुल्स मूवमेंट का गठन छह क्षेत्रीय दलों के गठबंधन के रूप में किया गया था। यह छह क्षेत्रीय दल थे- मिजोरम पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, जोरम नेशनलिस्ट पार्टी, जोरम एक्सोडस मूवमेंट, जोरम डिसेंट्रेलाइजेशन फ्रंट, जोरम रिफॉर्मेशन फ्रंट और मिजोरम पीपुल्स पार्टी। इन दलों ने आगे चलकर एक एकीकृत इकाई के रूप में विलय कर दिया, इसके बाद आधिकारिक तौर पर 2018 में जोरम पीपुल्स मूवमेंट यानी आज के जेडपीएम का गठन हुआ। हालांकि चुनाव आयोग में पंजीकृत होने के लिए जेडपीएम को और इंतजार करना पड़ा।
2018 के विधानसभा चुनावों में निर्दलीय लड़े जेडपीएम प्रत्याशी
2018 के मिजोरम विधान सभा चुनावों में जेडपीएम पहली बार मैदान में उतरा। पार्टी ने खुद को मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के राजनीतिक विकल्प के रूप में पेश किया। पार्टी ने शराबबंदी की वकालत की। पार्टी ने 36 में से 40 सीटों पर चुनाव लड़ा। उस वक्त लालडुहोमा की गठित पार्टी को चुनाव आयोग से मान्यता नहीं मिल सकी थी, जिसके कारण उनके उम्मीदवारों को निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनावी मैदान में उतरना पड़ा था। निर्दलीय उम्मीदवारों के रूप में जेडपीएम ने 8 सीटों पर जीत हासिल की। यह अपेक्षाकृत नए ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। चुनाव में लालडुहोमा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री लालथनहलवा को करारी शिकस्त दी, जिसके बाद से वे राजनीतिक गलियारों में सुर्खियां बन गए।