Category Archive : राज्य

कश्मीर में फिर लागू होगा ‘अनुच्छेद 370’ !

188 Views -
क्या जम्मू कश्मीर में फिर से लागू होगा अनुच्छेद-370, तीन साल बाद आखिर ऐसा क्या हुआ जो फिर से इस मुद्दे पर चर्चा शुरू हो गयी है ? आपको इसकी पूरी कहानी बताएंगे और इस पर कानून के जानकारों की क्या राय है वो भी आपके सामने रखेंगे,,,नमस्कार आपके साथ  मै हूँ मनीषा …  2019 में जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद-370 खत्म कर दिया गया था। तीन साल बाद इस अनुच्छेद की चर्चा फिर से शुरू हो गई है। मामला सुप्रीम कोर्ट में है। कोर्ट में अनुच्छेद-370 हटाने को चुनौती दी गई है। इससे जुड़ी 20 से ज्यादा याचिकाएं कोर्ट में हैं और सभी पर 11 जुलाई को सुनवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रेस रिलीज जारी करके बताया कि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई में पांच जजों की बेंच इस मामले को सुनेगी। इस बेंच में जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत होंगे।
 
 

 

कोर्ट में मामला पहुंचते ही  अनुच्छेद-370 को लेकर बयानबाजी तेज हो गई है। सवाल उठ रहे हैं कि क्या फिर से जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 लागू हो सकता है? आपको बता दें कि पांच अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने अनुच्छेद-370 खत्म कर दिया था। यह कानून जम्मू-कश्मीर में बीते करीब सात दशक से चला आ रहा था।  दरअसल, अक्तूबर 1947 में, कश्मीर के तत्कालीन महाराजा, हरि सिंह ने भारत के साथ एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसमें कहा गया कि तीन विषयों के आधार पर यानी विदेश मामले, रक्षा और संचार पर जम्मू और कश्मीर भारत सरकार को अपनी शक्ति हस्तांतरित करेगा।

 
खबर का पूरा वीडियो देखने के लिए दिए लिंक पर क्लिक करें-
https://youtu.be/WlqEYoYh7Lk
 

इतिहासकार के मुताबिक , ‘मार्च 1948 में, महाराजा ने शेख अब्दुल्ला के साथ प्रधानमंत्री के रूप में राज्य में एक अंतरिम सरकार नियुक्त की। जुलाई 1949 में, शेख अब्दुल्ला और तीन अन्य सहयोगी भारतीय संविधान सभा में शामिल हुए और जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति पर बातचीत की गई , जिसके बाद अनुच्छेद-370 को अपनाया गया।’इस अनुच्छेद में प्रावधान किया गया कि रक्षा, विदेश, वित्त और संचार मामलों को छोड़कर भारतीय संसद को राज्य में किसी भी कानून को  लागू करने के लिए जम्मू-कश्मीर सरकार की मंजूरी की आवश्यकता होगी।  इसके चलते जम्मू और कश्मीर के निवासियों की नागरिकता, संपत्ति के स्वामित्व और मौलिक अधिकारों का कानून शेष भारत में रहने वाले निवासियों से अलग था। अनुच्छेद-370 के तहत, अन्य राज्यों के नागरिक जम्मू-कश्मीर में संपत्ति नहीं खरीद सकते थे। अनुच्छेद-370 के तहत, केंद्र को राज्य में वित्तीय आपातकाल घोषित करने की शक्ति नहीं थी।  अनुच्छेद-370 (1) (सी) में उल्लेख किया गया था कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1   अनुच्छेद-370 के माध्यम से कश्मीर पर लागू होता है। अनुच्छेद 1 संघ के राज्यों को सूचीबद्ध करता है। इसका मतलब है कि यह अनुच्छेद-370 है जो जम्मू-कश्मीर राज्य को भारतीय संघ से जोड़ता है।  
 

जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 3 में कहा गया था कि जम्मू और कश्मीर राज्य भारत संघ का अभिन्न अंग है और रहेगा। अनुच्छेद 5 में कहा गया कि राज्य की कार्यपालिका और विधायी शक्ति उन सभी मामलों तक फैली हुई है, जिनके संबंध में संसद को भारत के संविधान के प्रावधानों के तहत राज्य के लिए कानून बनाने की शक्ति है।
जम्मू-कश्मीर का संविधान 17 नवंबर 1956 को अपनाया गया और 26 जनवरी 1957 को लागू हुआ था। पांच अगस्त 2019 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा जारी जम्मू और कश्मीर के लिए आवेदन आदेश, 2019 (सीओ 272) द्वारा जम्मू और कश्मीर के संविधान को निष्प्रभावी बना दिया गया था।
 
 
 
2019 में जब अनुच्छेद-370 खत्म किया गया था, तब पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान ने कुछ हद तक स्थिति बिगाड़ने की कोशिश की थी। घुसपैठ के जरिए हिंसा कराने की खूब कोशिश हुई, लेकिन सुरक्षाबलों ने सभी को नाकाम कर दिया गया। केंद्र सरकार ने विशेष तौर पर जम्मू कश्मीर के विकास पर फोकस करना शुरू कर दिया। अब हर बजट में जम्मू कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान किए जाते हैं, ताकि यहां के लोगों को मुख्य धारा से जोड़ा जा सके। अनुच्छेद-370 खत्म होने के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब जम्मू-कश्मीर संयुक्त राष्ट्र के दागी लिस्ट से बाहर हुआ। 
 
 

अब सवाल ये उठता है कि क्या कोर्ट इस फैसले को पलट सकता है, और अनुच्छेद-370 दोबारा वापस लागू हो सकता है ? 
इसे समझने के लिए हम आपको कानून के जानकारों का मत बताते हैं,,,  कानून के जानकार कहते हैं  कि  ‘अनुच्छेद-370 पूरी तरह से कानूनी तौर पर हटाया गया है। संसद की दोनों सदनों से इस प्रस्ताव को पास किया जा चुका है। राष्ट्रपति भी इसे मंजूरी दे चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट कानूनी पहलुओं पर जरूर चर्चा कर सकती है, लेकिन इसे फिर से लागू करना मुश्किल है। संसद का काम कानून बनाना होता है और न्यापालिका का काम उस कानून का पालन करते हुए न्याय दिलाना है।

हिमाचल ने कर दी शुरुआत,उत्तराखंड में कब ?

79,803 Views -
उत्तराखंड राज्य 68 हजार करोड़ के कर्ज में डूब चुका है, पर शायद ही यहां के राजनेताओं को आपने इस  पर कभी कोई बात करते देखा या सुना होगा,प्रदेश के ऊपर कर्ज लगातार बढ़ रहा है लेकिन इसको कम कैसे किया जाय इसको लेकर किसी भी सरकार के पास आज तक कोई ठोस निति नहीं रही है,  अकेले विधायकों और मंत्रियों के वेतन और भत्तों पर अब तक 100 करोड़ रूपये खर्च किये जा चुके हैं, कर्ज तले दबे इस प्रदेश पर लगातार बोझ बढ़ता ही जा रहा है, ये कम कैसे होगा इसका जवाब किसी  सरकार के पास नहीं है,,,
 
 पड़ोसी  राज्य ‘हिमाचल’  जो भौगोलिक दृष्टि से लगभग  उत्तराखंड  प्रदेश से मिलता जुलता है,यहां भी आर्थिक हालात कुछ अच्छे नहीं हैं,अभी हाल ही में कांग्रेस ने यहां सत्ता संभाली है,और यहां की कमान संभाल रहे हैं सुखविंदर सिंह सुक्खू,,,,
 

पिछले एक दशक में हिमाचल की बिगड़ी आर्थिक सेहत को सुधारने के लिए खुद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने  एक बहुत ही अच्छी पहल की है।जिसकी पूरे हिमाचल प्रदेश में तारीफ हो रही है..  

 

 

सुखविंदर सिंह सुक्खू ने  हिमाचल को कर्ज मुक्त और ग्रीन स्टेट बनाने के लिए हेलीकॉप्टर छोड़कर सामान्य यात्रियों की तरह विमान में सफर करना और छोटी ई-कार से यात्रा करना शुरू कर दिया है। वह बिना काफिले के जरूरी चार सामान्य कारों और सामान्य सुरक्षा के साथ चल रहे हैं। उन्होंने अपने मंत्रियों को भी इसी तरह बचत करने का सुझाव दिया है।  मुख़्यमंत्री की इस पहल की पूरे हिमांचल में सराहना की जा रही है,और अब अधिकारीयों से लेकर मंत्रियों पर भी खर्च कम करने को लेकर दबाव बढ़ गया है, इससे राज्य में हर माह 3 करोड़ की बचत होती है।

 

 
हिमाचल सरकार द्वारा सरकारी विभागों और पथ परिवहन निगम के बेड़े में इलेक्ट्रिक वाहनों को शामिल किया जा रहा है। सीएम ने विभिन्न मंचों से जलविद्युत परियोजनाओं में राज्य के अधिकारों की वकालत शुरू की है,ताकि वहां से भी राजस्व हासिल हो सके। दिल्ली का दौरा कर रॉयल्टी में वृद्धि व विभिन्न केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के स्वामित्व वाली बिजली परियोजनाओं में राज्य की हिस्सेदारी की मांग को सुक्खू ने उठाया है। सीएम के प्रयासों से शोंगटोंग जलविद्युत परियोजना के कार्यों में तेजी आई है, जिसके अब जुलाई 2025 तक पूरा होने की उम्मीद है। इस परियोजना के समय से पूरा होने से करीब 250 करोड़ रुपये की बचत होगी व 156 करोड़ का राजस्व व्याज हासिल होगा।
 
उत्तराखंड को भी कर्ज से निकालने की कुछ ऐसी पहल सरकार कर सकती है,जलविधुत परियोजनाओं से भी प्रदेश को खास फायदा होता नहीं  दिखाई देता,जरूरत है राज्य सरकार यहां बन रही विधुत परियोजनाओं में अपना एक मजबूत हिस्सा सुनिश्चित करे जिससे प्रदेश के आर्थिक हालात मजबूत किये जा सकें,क्योकि उत्तराखंड प्रदेश में प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है बीएस जरूरत है तो उनके सही इस्तेमाल की और एक ठोस निति की जिससे पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी इस प्रदेश के काम आ सके। …

यूनिफॉर्म सिविल कोड,असल मुद्दा या चुनावी चिंता

105,852 Views -

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर समान नागरिक संहिता  पर टिप्पणी की है। पीएम मोदी के इस टिप्पणी के बाद राजनीतिक बहस फिर से शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री मोदी ने मंगलवार को कहा कि भारत दो कानूनों पर नहीं चल सकता और समान नागरिक संहिता संविधान का हिस्सा है। पीएम के बयान से देश भर में बहस छिड़ गई है क्योंकि कई विपक्षी नेताओं ने पीएम मोदी पर कई राज्यों में चुनाव नजदीक आने पर राजनीतिक लाभ के लिए यूसीसी मुद्दा उठाने का आरोप लगाया है।

प्रधानमंत्री का यह बयान 22वें विधि आयोग द्वारा 30 दिनों के भीतर यूसीसी पर जनता और “मान्यता प्राप्त” धार्मिक संगठनों के विचार आमंत्रित करने के एक सप्ताह बाद आया है। कांग्रेस नेताओं ने पीएम मोदी पर महंगाई, बेरोजगारी और मणिपुर की स्थिति जैसी वास्तविक समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए यूसीसी मुद्दे का इस्तेमाल करने का आरोप भी लगाया।
   AIMIM  के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने मंगलवार को प्रधानमंत्री की आलोचना करते हुए कहा, “भारत के प्रधानमंत्री भारत की विविधता और इसके बहुलवाद को एक समस्या मानते हैं। इसलिए, वह ऐसी बातें कहते हैं…कई पार्टियों के अलावा 30 से अधिक आदिवासी संगठनों ने भी आशंका व्यक्त की है कि समान नागरिक संहिता आदिवासी प्रथागत कानूनों को कमजोर कर देगी।कई मुस्लिम संगठन UCC को लेकर आशंकित हैं जिसको लेकर उनकी बैठकों का दौर भी चल रहा है.
अब आपको ये समझना होगा कि  UCC में आखिर ऐसा है क्या जो इसको लेकर इतना विवाद हो रहा है,,,,,, यूसीसी सभी धर्मों के लोगों के लिए व्यक्तिगत कानूनों की एक समान संहिता रखने का विचार है। व्यक्तिगत कानून में विरासत, विवाह, तलाक, चाइल्ड कस्टडी और गुजारा भत्ता जैसे कई पहलू शामिल हैं। हालांकि, वर्तमान में भारत के व्यक्तिगत कानून काफी जटिल और विविध हैं, प्रत्येक धर्म अपने विशिष्ट नियमों का पालन करता है।
भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर का विचार था कि यूसीसी वांछनीय है, लेकिन संविधान सभा में महत्वपूर्ण विभाजन के बाद उन्होंने इसे फिलहाल स्वैच्छिक बने रहने का प्रस्ताव दिया। अंबेडकर ने कहा था कि , “शुरुआत करने के तरीके के रूप में, भविष्य की संसद यह प्रावधान कर सकती है कि संहिता केवल उन लोगों पर लागू होगी जो घोषणा करते हैं कि वे इसका पालन करने के इच्छुक हैं। दूसरे शब्दों में, प्रारंभ में, “संहिता का अनुप्रयोग विशुद्ध रूप से स्वैच्छिक हो सकता है।” अंबेडकर का  मानना था कि, यूसीसी को शुरू में एक स्वैच्छिक संहिता के रूप में पेश किया जा सकता है, और संसद निश्चित रूप से नागरिकों को इसका पालन करने के लिए बाध्य नहीं करेगी।
इसके पक्ष में दलील दी जाती है कि धार्मिक आधार पर पर्सनल लॉ होने की वजह से संविधान के पंथनिरपेक्ष की भावना का उल्लंघन होता है। संहिता के हिमायती यह मानते हैं कि हर नागरिक को अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता का अधिकार,अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव की मनाही और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार मिला हुआ है।इसके पक्षकारों की दलील है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड के अभाव में महिलाओं के मूल अधिकार का हनन हो रहा है। शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर एक समान कानून नहीं होने से महिलाओं के प्रति भेदभाव किया जा रहा है। पक्षकारों का तर्क है कि लैंगिक समानता और सामाजिक समानता के लिए समान नागरिक संहिता होनी ही चाहिए।
अल्पसंख्यक समुदाय के लोग यूनिफॉर्म सिविल कोड का खुलकर विरोध करते आए हैं। विरोध में तर्क देने वाले लोगों का कहना है कि संविधान के मौलिक अधिकार के तहत अनुच्छेद 25 से 28 के बीच हर शख्स को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है। इसलिए हर धर्म के लोगों पर एक समान पर्सनल लॉ थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करना है।मुस्लिम इसे उनके धार्मिक मामलों में दखल मानते हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड  हमेशा से यूनिफॉर्म सिविल कोड को असंवैधानिक और अल्पसंख्यक विरोधी बताता रहा है। ये बोर्ड दलील देता है कि संविधान हर नागरिक को अपने धर्म के मुताबिक जीने की अनुमति देता है। इसी अधिकार की वजह से अल्पसंख्यकों और आदिवासी वर्गों को अपने रीति-रिवाज, आस्था और परंपरा के मुताबिक अलग पर्सनल लॉ के पालन करने की छूट है।
समान नागरिक कानून का जिक्र 1835 में ब्रिटिश सरकार की एक रिपोर्ट में भी किया गया था. इसमें कहा गया था कि अपराधों, सबूतों और ठेके जैसे मुद्दों पर समान कानून लागू करने की जरूरत है. इस रिपोर्ट में हिंदू-मुसलमानों के धार्मिक कानूनों से छेड़छाड़ की बात नहीं की गई है. हालांकि, 1941 में हिंदू कानून पर संहिता बनाने के लिए बीएन राव समिति का गठन किया गया. राव समिति की सिफारिश पर 1956 में हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के उत्तराधिकार मामलों को सुलझाने के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम विधेयक को अपनाया गया. हालांकि, मुस्लिम, ईसाई और पारसियों लोगों के लिये अलग कानून रखे गए थे.
भारतीय अनुबंध अधिनियम-1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम-1882, भागीदारी अधिनियम-1932, साक्ष्य अधिनियम-1872 में सभी नागरिकों के लिए समान नियम लागू हैं. वहीं, धार्मिक मामलों में सभी के लिए कानून अलग हैं. इनमें बहुत ज्‍यादा अंतर है. हालांकि, भारत जैसे विविधता वाले देश में इसको लागू करना इतना आसान नहीं है. देश का संविधान सभी को अपने-अपने धर्म के मुताबिक जीने की पूरी आजादी देता है. संविधान के अनुच्छेद-25 में कहा गया है कि कोई भी अपने हिसाब धर्म मानने और उसके प्रचार की स्वतंत्रता रखता है.
भारत का सामाजिक ढांचा विविधता से भरा हुआ है. हालात ये हैं कि एक ही घर के सदस्‍य अलग-अलग रीति-रिवाजों को मानते हैं. अगर आबादी के आधार पर देखें तो देश में हिंदू बहुसंख्‍यक हैं. लेकिन, अलग राज्‍यों के हिंदुओं में ही धार्मिक मान्‍यताएं और रीति-रिवाजों में काफी अंतर देखने को मिल जाएगा. इसी तरह मुसलमानों में शिया, सुन्‍नी, वहावी, अहमदिया समाज में रीति रिवाज और नियम अलग हैं. ईसाइयों के भी अलग धार्मिक कानून हैं. वहीं, किसी समुदाय में पुरुष कई शादी कर सकते हैं. कहीं विवाहित महिला को पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिल सकता तो कहीं बेटियों को भी संपत्ति में बराबर का अधिकार दिया गया है. समान नागरिक संहिता लागू होते ही ये सभी नियम खत्म हो जाएंगे. हालांकि, संविधान में नगालैंड, मेघालय और मिजोरम के स्‍थानीय रीति-रिवाजों को मान्यता व सुरक्षा देने की बात कही गई है.
कोर्ट भी समय समय पर इस पर कई बार अपनी बात कह चुका है,ट्रिपल तलाक से जुड़े 1985 के चर्चित शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 44 एक ‘मृत पत्र’ जैसा हो गया है. साथ ही कोर्ट ने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की जरूरत पर जोर दिया था. गोवा के लोगों से जुड़े 2019 के उत्तराधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की चर्चा करने वाले भाग चार के अनुच्छेद-44 में संविधान के संस्थापकों ने अपेक्षा की थी कि राज्य भारत के सभी क्षेत्रों में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश करेगा. लेकिन, आज तक इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया.
समान नागरिक संहिता के मामले में गोवा अपवाद है. गोवा में यूसीसी पहले से ही लागू है. बता दें कि संविधान में गोवा को विशेष राज्‍य का दर्जा दिया गया है. वहीं, गोवा को पुर्तगाली सिविल कोड लागू करने का अधिकार भी मिला हुआ है. राज्‍य में सभी धर्म और जातियों के लिए फैमिली लॉ लागू है. इसके मुताबिक, सभी धर्म, जाति, संप्रदाय और वर्ग से जुड़े लोगों के लिए शादी, तलाक, उत्‍तराधिकार के कानून समान हैं. गोवा में कोई भी ट्रिपल तलाक नहीं दे सकता है. रजिस्‍ट्रेशन कराए बिना शादी कानूनी तौर पर मान्‍य नहीं मानी जाती . संपत्ति पर पति-पत्‍नी का समान अधिकार है. हालांकि, यहां भी एक अपवाद है. जहां मुस्लिमों को गोवा में चार शादी का अधिकार नहीं है. वहीं, हिंदुओं को दो शादी करने की छूट है. हालांकि, इसकी कुछ शर्तें भी हैं.
दुनिया के कई देशों में समान नागरिक संहिता लागू है. इनमें हमारे पड़ोसी देश पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश भी शामिल हैं. इन दोनों देशों में सभी धर्म और संप्रदाय के लोगों पर शरिया पर आधारित एक समान कानून लागू होता है. इनके अलावा इजरायल, जापान, फ्रांस और रूस में भी समान नागरिक संहिता लागू है. हालांकि, कुछ मामलों के लिए समान दीवानी या आपराधिक कानून भी लागू हैं. यूरोपीय देशों और अमेरिका में धर्मनिरपेक्ष कानून है, जो सभी धर्म के लोगों पर समान रूप से लागू होता है. दुनिया के ज्‍यादातर इस्लामिक देशों में शरिया पर आधारित एक समान कानून है, जो वहां रहने वाले सभी धर्म के लोगों को समान रूप से लागू होता है.

भारत में अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होता है तो लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ा दी जाएगी. इससे वे कम से कम ग्रेजुएट तक की पढ़ाई पूरी कर सकेंगी. वहीं, गांव स्‍तर तक शादी के पंजीकरण की सुविधा पहुंचाई जाएगी. अगर किसी की शादी पंजीकृत नहीं होगी तो दंपति को सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं मिलेगा. पति और पत्‍नी को तलाक के समान अधिकार मिलेंगे. एक से ज्‍यादा शादी करने पर पूरी तरह से रोक लग जाएगी. नौकरी पेशा बेटे की मौत होने पर पत्‍नी को मिले मुआवजे में माता-पिता के भरण पोषण की जिम्‍मेदारी भी शामिल होगी. उत्‍तराधिकार में बेटा और बेटी को बराबर का हक होगा.

 

पत्नी की मौत के बाद उसके अकेले माता-पिता की देखभाल की जिम्‍मेदारी पति की होगी. वहीं, मुस्लिम महिलाओं को बच्‍चे गोद लेने का अधिकार मिल जाएगा. उन्‍हें हलाला और इद्दत से पूरी तरह से छुटकारा मिल जाएगा. लिव-इन रिलेशन में रहने वाले सभी लोगों को डिक्लेरेशन देना पड़ेगा. पति और पत्‍नी में अनबन होने पर उनके बच्‍चे की कस्‍टडी दादा-दादी या नाना-नानी में से किसी को दी जाएगी. बच्‍चे के अनाथ होने पर अभिभावक बनने की प्रक्रिया आसान हो जाएगी.इस तरह के कई प्रावधान इसमें हो सकते हैं….